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१७६ ]
गोरा

१७६ ] गोरा ईसाई-मत की एक पुस्तक अपनी गादमें रक्खे चिरागको घरके . एक कोनेमें छिपाकर बड़ी रात तक द्वारके समीप बैठकर अंधेरी रातकी. ओर गाल पर हाथ दिये देखती रही । उसके आगे मानो कोई अपरिचित अपूर्व स्थान मृगतृष्णा की तरह दिखाई दिया था। इतने दिन तक जीवन में जो बातें जानी सुना हैं उनके साथ उस स्थान के किसी अंश का चिर विच्छेद है, इसलिए वहाँ के झरोखों में जो रोशनी हो रही है, वह घोर अंधेरी रात की नक्षत्र-मालाकी भांति सुदूरवर्ती होने का कौतुक दिखा मन को सशङ्कित कर रही है । इस अपूर्व दृश्यको देख उसके मन में आया कि मेरा जीवन तुच्छ है; इतने दिन तक जिसे सच माना है वह संशकाकीर्ण है और जो नित्यका व्यवहार करती आती हूँ वह अर्थ हीन है । अव वहाँ पहुंचकर शायद ज्ञानका पूर्ण लाभ होने और कर्मके उच्च होनेसे मैं जीवनको सार्थक कर सकूँ । इस अपूर्व अपरिचित भयङ्कर स्थानके अज्ञात सिंह-दांजेके सामने किसने मुझे लाकर खड़ा कर दिया है । क्यों मेरा हृदय इस तरह कांप रहा है क्यों मेरे पैर उस ओर आगे बढ़कर फिर इस प्रकार लब्ध हो रहे हैं।