पृष्ठ:गोरा.pdf/१७७

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[२३ ] इन कई दिनोंमें सुचरिताने विशेष रूपसे उपासनामें मन लगा दिया था। यह जैसे पहलेसे भी अधिक परेश बाबूका आश्रय लेनेकी चेष्टा करती थी। एक दिन परेश बापू अपने बैठकमें अकेले बैठे कुछ पढ़ रहे थे, समस सुचरिता चुपचाप उनके पास आकर बैठ गई । परेश बाबूने पुस्तक टेबिलके ऊपर रख कर गृहा-चों राधे ! सुचरिता 'कुछ नहीं !' कह कर, यद्यपि टेविलके ऊपर कितावे और अखबार बकायदे रखे थे, तो भी उनको इधर उधर हटाकर और तरहसे सजाकर रखने लगी। दम भर बाद वह कह उटी--बाबूजी, पहले आप जिस तरह मुझे पढ़ाते थे, उसी तरह अब क्यों नहीं पढ़ाते ? परेश वाबूने लेहपूर्वक जरा हँस कर कहा- मेरी छात्रा तो मेरे स्कूलसे पास करके निकल गई है ! अब तो तुम अाप ही सब पढ़ सकती हो वेटी। सुचरिताने कहा-ना. मैं कुछ भी नहीं समझ पाती बाबूजी । मैं पहले ही की तरह आपके पास पढूंगी । परेश वाबूने कहा-अच्छी बात है, मैं कलसे तुमको पढ़ाऊँगा ! सुचरिता फिर कुछ देर चुप रह कर एकाएक कह उठी-बाबू जी, उस दिन विनय बाबूने जाति भेदके बारे में बहुत-सी बातें कही थीं ; श्राप उस बारे में समझकर मुझसे कुछ क्यों नहीं कहते ? परेश बाबूने कहा-बेटी तुम तो जानती ही हो, मैंने वरावर तुम लोगोंके साथ ऐसा ही व्यवहार किया है कि तुम लोग जिससे हरएक विषय को प्रापही सोचने-समझनेकी चेष्टा करो, मेरे था और किसीके फ० नं०१२ १७७