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१८० ]
गोरा

१८० ] गोरा नहीं मिलता था, उसके ऊपर क्रोध किये बिना आज तक सुचरितासे नहीं रहा जाता था। हालमें गोराके साथ मुलाकात और बातचीत होनेके बादसे सुचरिता गोराकी बातोंको क्रोध, अवज्ञा, या उपेक्षा, करके किसी तरह उड़ा देने में असमर्थ हो रही थी, इसीसे उसे एक तरहके कष्टका अनुभव हो रहा था । यही कारण था कि वह फिर बचपनकी तरह परेश !बाबूको, उनकी छायाकी तरह, अपना आश्रय अथवा अवलम्ब बनाने के लिए उसके हृदयमें न्यकुलता उपस्थित हुई थी। चौकी परसे उठकर दरखानेके पास तक जाकर सुचरिता फिर लौट आई और परेश बाबूके पीछे खड़े होकर, उनकी कुर्सी की पीठ पर दोनों हाथ रख कर, उसने कहा--बाबू जी, आज मुझे भी साथ लेकर उपासना कीजिएगा। परेश-अच्छा। उसके बाद अपनी सोनेकी कोठरी में जाकर दरबाजा बन्द करके सुच- रिता बैठी, और उसने गोराकी बातोंको एकदम अग्राह्य करनेकी चेष्टा की। किन्तु मोराका वह बुद्धि और विश्वाससे जगमगा रहा मुख उसकी आँखोंके आगे जागता रहा । उसे जान पड़ने लगा कि गोराकी वातें केवल बातें ही नहीं है, वे जैसे खुद गोराकी ही हैं। उन बातों का आकार है, गति है, प्राण है; वे विश्वास केवल स्वदेश प्रेमकी वेदनासे परि. पूर्ण है। यह मत नहीं है कि उसका प्रतिवाद करके ही उसे समाप्त कर दिया जायगा—वह तो सम्पूर्ण मनुष्य है, और वह मनुष्य सामान्य नहीं हैं। उसे ठेलकर सामनेसे हटाने के लिये हाथ ही नहीं उठता ! अत्यन्त ही एक द्वन्द के बीचमें पड़कर सुचरिता को रुलाई आने लगी। कोई उसे इतने बड़े दुविधाके द्वन्द्वमें डालकर आप सम्पूर्ण उदासीन निर्लिप्तकी तरह अनायास दूर चला जा सकता है, यह बात सोचकर उसका हृदय विदीर्ण सा होने लगा किन्तु अपनेको इसके लिए कष्ट पाते देखकर वह अनेको कोटिशः विकार भी देने लगी। 1 -.-:*:---