पृष्ठ:गोरा.pdf/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १८५
गोरा

गोरा [१८५ नहीं हुअा; क्योंकि अच्छा कहनेसे प्रसन्न होनेका जो मनुष्य चरित्रका साधारण नियम है, वह ललिताके सम्बन्धमें भी घटिता हो सकता है यहाँ तक कि शायद साधारण नियम होनेके कारण ही न घटित होगा। यही सोचकर, इसी कारण से, विनय अपने मनके वेगको न रोक कर वरदासुन्दरीके पास गया, और उनके आगे ललिताकी इस क्षमता पर निरन्तर प्रशंसाके फूल बरसाने लगा। इससे विनयकी विद्या और बुद्धि पर वरदासुन्दरीकी श्रद्धा और भी बढ़ हो गई। और एक अद्भुत घटना देखी गई ललिताने जब स्वयं अनुभव किया कि उसकी कविताका पढ़ना और अभिनय अच्छा हुआ है, सुगठित नाव जैसे नदीकी लहरों पर अनायास चली जाती है वैसे ही वह भी जब खूबीके साथ अपने कर्तव्यकी कठिनाईके ऊपर चली गई, तमी विनयके सम्बन्धमें उसकी तीव्रता भी दूर हो गई। फिर तो विनय को अभिनय में अलग करने के लिए उसकी जरा भी इच्छा नहीं रही। अब इस कार्यमें उसका उत्सास बढ़ उड़ा और रिहसंलके काममें विनयके साथ उसका मेल घनिष्ट हुा । यहाँ तक कि कविताकी आवृत्ति अथवा और किसी बातके बारेमें विनय से सलाह या उद्देश लेने में भी उसे कुछ मी आपत्ति नहीं रही। ललिताके इस परिवर्तनसे विनयकी छाती परने जैसे एक बड़े भारी पत्थरका बोझ हट गया । उससे इतना अधिक अानन्द हुन्ना कि वह तब आनन्दमयीके पास जाकर बालककी तरह लड़कपन करने लगा। सुचरिता के पास बैठ कर बहुत सी बातें बकनेके लिए विनय के मनमें अनेक बातें जमा होने लगी; किन्तु आज कल सुचरिता उसे देखने ही को नहीं मिलती, उसके दर्शन ही दुर्लभ हैं । मौका पाते ही वह ललिता के साथ बात चीत करनेको बैठता था; किन्तु ललिता के सामने उसे विशेष साव- धान होकर ही बात मुँह से सब निकालनी पड़ती थी। विनय जानता था कि ललिता मन ही मन उसका और उसकी बातोंका विचार तीक्ष्णभावने करती है, इसी कारण ललिता के सामने, उसकी बातोंके धारा प्रवाहमें