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गोरा

१८६] गोरा स्वाभाविक वेग नहीं रहता था । ललिता वीच बीच में उससे कहती थी- श्राप तो जैसे कितावसे रट कर ये बातें कह रहे हैं। इस तरह क्यों बोलते हैं ? विनय इसके जवाब में कहता था-मैं इतनी अवस्था तक किताबें ही रटता आया हूँ, इसीसे मेरा मन छपी हुई किताबके समान हो गया है। ललिता कहती थी—आप खूब अच्छी तरह संभाल कर, बनाकर बात करनेकी कोशिश न किया करें-अपने मनकी बात ठीक तौरसे कह जाया करें । आप इस तरह खूबीके साथ अलंकारिक भाषामें कहते हैं कि मुझे सन्देह होता है, आप किसीकी बातें सोच समझकर बना कर कहते हैं। यही कारण था कि स्वाभाविक क्षमताके कारण कोई बात खुब सजावट के साथ अगर विनयके मनमें आती थी, तो उसे भी ललिताके सामने कहते समय चेष्टा करके बिनयको वह वात सीधी सादी भाषामें संक्षेपके साथ कहनी पड़ती थी। कोई आलंकारिक बात उसकी जबान पर अगर अकस्मात आ जाती थी, तो वह लज्जित हो जाता था। ललिताके मनके भीतरसे जैसे एक व्यर्थका मेघ हट गया, और उसका हृदय निर्मल उज्वल हो उठा। वरदासुन्दरी भी उसका यह परि- वर्तन देखकर विस्मित हो गई। वह अब पहलेकी तरह वात वातमें आपत्ति प्रकट करके विमुख नहीं हो बैठती 1-सब कामों में उत्साह के साथ शरीक होती है । आगामी अभिनय के सान और सजावट वगैरह सभी बातोंके. बारेमें उसके मन में नित्य नाना प्रकारकी नई नई कल्पनायें पैदा होने लगीं। उन्हीं कल्पनात्रोंको लेकर उसने सबकी नाकमें दम कर दिया। इस बारेमें वरदासुन्दरीका उत्साह चाहे जितना अधिक हो वह खर्चकी बात भी सोचती है-इसी कारण, ललिता जब अभिनयकी ओर से विमुख थी, तब भी जैसे उनकी उत्कण्ठाका कारण उपस्थित हुआ था, वैसे ही अब उसकी उत्साहित अवस्थामें भी उनके जी को संकट उप-