पृष्ठ:गोरा.pdf/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१९३ ]
गोरा

१६४ ] गोरा गोराके प्रति एक विरुद्ध भावकी उत्तेजना होने के कारण असहिष्णु हो कर विनय कह उठा-गोराको वस पराये के ही ऊपर हाटे रहती है। हम जो समाजकी छाती पर बैठकर नित्यप्रति जो सब अत्याचार करते हैं; उन्हें केवल क्षमा ही करना होगा, और कहना होगा कि ऐसा सत्कर्म और कुछ हो ही नहीं सकता। एकाएक गोराके ऊपर इस तरह दोषारोपण करके अपनेको जैसे अन्य पक्ष मान कर, विनय अपनेका गोराके विरुद्ध खड़ा किया है यह देख कर आनन्दमयी हँसी। विनयने कहा-मां तुम हँसती हो कि एकाएक बिनय इस तरह क्रोध क्यों कर उठा ? मुझे क्यों क्रोध होता हैं, सो उनसे कहता हूँ। सुधीर उस दिन मुझे अपने यहां नैहारी-स्टेशन में अपने एक मित्रके वागमें ले गया था। सियालदह स्टेशनसे ही पानी बरसना शुरू हो गया । शोदपुर स्टेशनमें जब गाड़ी रुकी, तब मैंने देखा, एक साहबी पोशाक पहने बंगाली साहब गड़ाते उतरे, अपनी स्त्रीको नै उतार । बंगाली साहब मजेसे छाता लगाये हुये थे । स्त्रीकी गोदमें एक बच्चा था। वह केवारी खुद एक मोटी चादर आढ़े थी, और बच्चेको भी उसीमें छिपाये थी । शीत और लज्जाले संकुचित हो रही थी, महिला तो खुले प्लेटफार्म पर खड़ी हुई भीग रही थी और उसका बेहया स्वामा खुद छाता लगाये असवाव उठाने के लिये कुलियों का इन्तिजाम कर रहा था। मुझे जान पड़ा, इस घड़ी सारे बंगाल में, क्या धूपमें और ज्या वमि भले घर की और क्या नीच जानेकी--किसी भी स्त्रीके सिर पर छाता नहीं है! जब मैंने देखा कि स्वानी निर्लज्ज होकर सिर पर लाता लगाये है, उसकी सी चादर से अपने बच्चे के शरीरको किसी तरह टक कर चुपचाप खड़ी · भीग रही है-इस व्यवहारकी निन्दा मनमें भी नहीं करती, और स्टेशन भरमें किसी आदमी को यह ब्यवहार अन्याय नहीं जान पड़ता, तभीसे मैंने प्रतिमाकी है कि मैं इन सब कान्यकी कल्पनात्मक निथ्या बातोंको