पृष्ठ:गोरा.pdf/१९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १९७
गोरा

। गोरा १६५ साथ रहने का सुख क्या हुआ ? इस प्रकार मन में सोचते हुए गोराने देखा कि गाँवके सभी लोग इधर उधर दौड़ रहे हैं, कोई रो रहा है, कोई हाय हावं कर रहा है, कोई बड़ा तमाशा देख रहा है, और कोई निर पर हाथ रख किंकर्तव्य-बिन्द हो खड़ा है। ऐसा यत्न किसीने न किया जिससे आग बुज सकती। सब मिलकर यदि आग बुझाने में लग पड़ते तो आग बुझना क्या कठिन था । सबके देखते ही देखते समूचा घर जल गया पर किसी से कुछ न हो सका। उसके पास कोई तालाब या कुाँ न था। स्त्रियाँ दूर से पानी लाकर घरका काम काज चलाती थी परन्तु प्रतिदिनका यह झन्झट मिटानेका लिए घरके नजदीक थोड़े खर्च में कुआँ खुदा लेने पर धनवान् लोग भी ध्यान न देते थे। पहले भी कई बार इस वस्तीमें आग लग चुकी है, अतः उसे ब्रह्माग्नि कह और दैवको दोष दे सभी लोग निधन हो बैठे है। समीपमें पानी की कोई व्यवस्था कर रखने के लिए उन लोगोंके मनमें कमी कोई चेष्टा उपजती ही नहीं । गाँवकी अत्यन्त आवश्यक वातके लिए जिनकी समझ ऐसी विचित्र ओर खोटी है उन लोगोंके पास समस्त देश की अलोचना करना गोराको एक विडम्बना सी जान पड़ी। सबसे अधिक आश्चर्य गोरा को यह समझकर हुआ कि मोतीलाल और रमापति इन सब दृश्योंको देखकर जरा भी न घवराये, इस घटना से कुछ भी विद- लित न हुए । बल्कि गोरा के इस क्षोभकों उन दोनोंने असङ्गत जाना। छोटे लोग तो ऐसा करते ही हैं, वे इसीमें अान्नद मानते है । इन कष्टोको वे कन्ट ही नहीं मानते । छोटे लोगों में इन सब बातों के सिवा और कुछ हो सकता है और हम किसी तरह सुधर सकते हैं, इसकी कल्पना करना भी 'वे ब्यर्थ समझते हैं । इस अज्ञता पशुधर्मिता और दुःखका बोझ कितना भारी है । बस भार हमारे,शिक्षित अशिक्षित, धनी दद्धि, सभी के सिरको मुकाये हुए हैं और किसीको आगे बढ़ने नहीं देता है यह बात अान स्पष्ट रूपसे जानकर गोराके मनमें भाँति भाँतिके दुःख होने लगे। मोतीलाल यह कहकर कि "मेरे घर से बीमारीका पत्र आया है' चल