पृष्ठ:गोरा.pdf/२०

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गोरा

२० ] गोरा ऊँगा। तुम जब तक अपनी इस दासी लचनिनिया को, जो ईसाई हो गई थी अपने यहाँ रक्खोगी, तब तक तुम्हारे दालान में मैं दा विनय कोई नहीं खा सकता। अानन्दमयी-अरे गोरा, तू ऐसी बात मुँह से मत निकाल ! लड़कपन में सदा तू उसी के हाथ से खाता पीता था, सच पूछो तो लकमिनियाने ही तुझको पाल पोसकर इतना बड़ा किया है। अनी कुछ ही दिन हुए, समिनिया के हाथ की बनी हुई चटनी के दिन भोजन ही नहीं करता था । बचपन में जब तेरे चेचक निकली थी, तब लमिनिका ने जैसी सेवा करके तेरी जान बचाई है उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। गोरा---उसे पेंशन दो, जमीन खरीद दो, घर बनवा दो, जो जी चाहे सो सलूक करो, लेकिन उसे घर में रखने से काम नहीं चलेगा माँ ! आनन्दमयी-~~ गोरा, तू समझता है कि रुपये दे देने से सभी तरह के ऋणों से उद्धार हो जाता है ! वह न रुपये चाहती है, न जान चाहती है, न घर चाहती है। चाहती है केवल मुछे देखना । वह तुझे न देख भावेगी तो मर जायगी। गोरा --तुम्हारी खुशी है, उसे एक : लेकिन बिनय तुम्हारे दालान में नहीं खाने पावेगा । जो नियम है वह मानना ही है किसी तरह उसके खिलाफ नहीं हो सकता। माँ तुम इतने बड़े प्रसिद्ध पण्डित के बंश की लड़की होकर सदाचार का पालन नहीं करती हो, यह तो एक बड़े आश्चर्य और खेद की बात है। आनन्दमयी-अरे बेटा, तुम्हारी माँ पहले बहुत कुछ कर थी और सदाचार का पालन करती थी। इस प्राचार पालन के लिए ही बहुधा मुझे रोना धोना तक पड़ता था | उस समय तुम भी नहीं। मैं रोज शिव की मूर्ति बनाकर पूजा करने बैटती थी, और हुम्हारे पिता जब देख लेते थे, तब मूर्ति को उठाकर फेंक देते थे । उस जमाने में दो परिचित ब्राह्मण के भी हाथ की बनी रसोई खाने में घिन मालूम होती थी। तव रेलगाड़ दूर-दूर तक नहीं पैली थी । तुम्हारे बाप के साथ बात्र में बैल-