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गोरा

। २०२] गोरा प्रचण्ड प्रातप में सुनसान वालुकामय मार्गसे अकेला ही लौय जा रहा है भूख प्यासने गोराको भी व्याकुल कर रक्खा था, किन्तु अन्यायी मङ्गल प्रसादका अन्न खाकर जाति बचानी होगी, इस बातको वह जितना ही सोचने लगा उतनी ही यह उसको असह्य होने लगी। उसके मुख और नेत्र लाल हो गये, सिर गर्म हो गया उसके मनमें विषम विद्रोह उपस्थित हुा । उसने मन में कहा, हम लोग भारतवर्षमें पवित्रताका ढोंग रचकर भारी अधर्म कर रहे हैं। एक नया उपद्रव खड़ा करके जो लोग मुसलमानोंको सता रहे हैं, उन्हींके यहां खाने पीनेसे मेरी जाति वचेगी। और जो उत्पात सहकर मुसलमानके लड़केकी प्राण रक्षा कर रहा है और साथ ही समाजकी निन्दा सहनेको भी तैयार हुअा है, उसके घर भोजन करनेसे मेरी जाति जायर्गा ! हा! ऐसी नासमझी ! जो हो, इस प्राचार- विचार की भली बुरी बातको पीछे सोचूँ गा, किन्तु अभी मुझसे यह न हो सकेगा कि जाति बचाने की इच्छासे मैं, इस घोर अन्यायी के घर अन्न जल ग्रहण करूँ। गोराको अकेला लौट आते देख नाई अचम्भेमें आ गया। गोराने आते ही सबके पहले नाईके लोटे को भली भाँति वालूमे मलकर अपने हाथ से कुएँ से पानी भरकर पिया और कहा, अगर तुम्हारे घरमें कुछ चावल दाल हो तो दो, हम रांधकर स्वावगे । नाईने हुलसकर रसोई का सब प्रबन्ध कर दिया। गोराने भोजन करके कहा-मैं तुम्हारे यहाँ दो चार दिन रहूँगा। नाईने डरते हुए हाथ जोड़कर कहा-आप इस अधमके घर रहें, इससे बढ़कर मेरा सौमाग्य और क्या हो सकता है । परन्तु एक बात मैं पहले ही आपसे कह रखता हूँ, हन लोगोंके ऊपर पुलिसकी कड़ी दृष्टि है आपके रहने से कोई नया बखेड़ा न खड़ा हो, इसीका डर है । गोराने कहा- मेरे यहाँ रहनेसे पुलिस कोई उपद्रव करनेका साहस न करेगी जो करेगी तो मैं तुम लोगों की रक्षा करूँगा।