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२२२ ]
गोरा

२२२ ] गोरा परसे दोनों हाथ हटाकर, उसके मुँहके पास मुंह लेजाकर, उसके कानमें कहने लगी-दादी, चलो, हम लोग यहाँस कलकत्ते लौट चलें नाज. तो. हम मंजिस्ट्रके वहाँ जा नहीं सकेंगी। नुचरिताने बहुत देर तक इस प्रत्तातका कुछ उत्तर नहीं दिया। ललिता जब बारम्बार कहने लगी, तब मुचरिता विछोने पर बैठी, और बोली --यह कैसे होगा बहन ? मेरी तो पाने की इच्छा ही नहीं थी.. लेकिन जब बाबूजी ने भेज दिया हैं तब जिस कामके लिये हम आई हैं उन किये बिना हम जा नहीं सकेगी। लालता - बाबूजो तो इन सब बातोंको जानते नहीं है, वह जानते तो की हमसे यहाँ ठहरनेके लिये न कहते । मुचरिता - सो मैं किस तरह जान सकती हूँ बहन ! ललितादीदी तुझसे जाया जायगा ? तूहो वता, किस तरह वहां जायगा? उसके बाद फिर सजधज करके स्टेज पर खड़े हो कर कविता पढ़नी होगी। मेरे तो जीभ कटकर खून गिरेगा तो भी मुंहले एक शब्द न निकलेगा! सुचरिता–सो तो जानती हूँ वहन ! किन्तु नरक्की यन्त्रणा भी सहनी पड़ती है। अब और कोई उपाय नहीं ! आजका दिन जीवन भरमें कभी न भूल सकी। सुचरिताकी इस वाध्यतासे नाराज होकर ललिता वहाँ से उठ आई आकर माँसे कहा- माँ तुम लोग न जानोगे ? वरदासुन्दरीने कहा...तू क्या पागल हो गई ? वहाँ तो रातको, नो बजेके बाद जाना होगा। ललिताने कहा- मैं कलकत्ते जानेकी बात कहती हूँ ? वरदा०- -जरा लड़कीकी बातें तो सुनो! ललिताने सुधीरसे कहा-सुधीर दादा, तुम यहाँ रहोगे ! गोराकी. सबाने सुधीरके मनको भी बेचैन कर दिया था किन्तु