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गोरा

गोरा - २२६ ] वह भक्ति प्रकट की जाय, यह बहुत सोचकर भी विनय निश्चय न कर सका। विनय बारम्बार सोचने लगा की ललिताने जो उसे इतना परमुखा- पेक्षी और साहसहीन कह कर घृणा प्रकट की थी वह यथार्थ थी । वह तो श्रात्मीय बन्धुओंकी निन्दा और प्रशंसाकी बलपूर्वक उपेक्षा करके इस तरह किसी भी विषयमें साहिंसक आचाणके द्वारा अपने मतको प्रकट न कर सकता । उसने अक्सर गोराको कष्ट पहुँचानेके भयसे, अथवा पीछे मेरा उत्ते दुर्वल न समझ ले-इस अशङ्कासे अपने स्वभावका अनुसरण नहीं किया; अक्सर सूक्ष्म युक्ति जाल फैला कर गोरा के मतको अपना ही म. कहकर स्वयं अपने ही को मुलाने की चेष्टा की है। आज यही मन में स्वीकार करके विनयने स्वाधीन बुद्धि शक्तिके गुणमें ललिताको अपनेसे कहीं श्रेष्ठ मान लिया। उसने जो पहले अनेक बार मन ही मन ललिता की निन्दा की थी। याद करके विनयको लज्जा मालूम हुई ? यहाँ तक कि ललिता से क्षमा माँगने को उसका जी चाहा, किन्तु यह सोचकर ठीक न कह सका कि किस तरह उससे क्षमा माँगे । ललिता की कमनीय स्त्री बूर्ति अपने आन्तरिक तेज से विनय की आँखों को आज ऐसी एक महिमा से जगमगती हुई दिखाई दी कि नारीके इस अपूर्व परिचय से उसने अपने जीवनको सार्थक समझा।