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२३० ]
गोरा

२३० ] गोरा गया, इस एक एकाएक होने वाले मामलेसे ललिताके साथ उसके जीवन की एक विशेष गांठ बन्ध गई, यही समझ कर विनय ललिताकी बगल में जैसे कुछ विशेष जोरके साथ खड़ा हुया! इसके ऊपर ललिताकी इस निर्भर कल्पनाने जैसे एक लर्शके समान उसके सारे शरीरमें बिजली सी दौड़ाना शुरू कर दिया ! उसे जान पड़ा, ललिताने जैसे उसका दाहना हाथ जोरसे पकड़ रक्खा है । ललिताके साथ इस सम्बन्धसे उसका हृदय जैसे भर उठा-याती जैसे फूल उठी। उसने अपने मनमें सोचा, जव परेश बाबू ललिताके इस हटके काम पर क्रोध करेंगे, ललिताको डाटेंगे तब वह यथासम्भव उस कार्यकी सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेगा- डॉट डपटके अंशको बिना किसी संकोचके ग्रहण करेगा, और ललिताको समी आवातासे बचानेकी चेष्टा करेगा। किन्तु ललिताके मनके यथार्थ नावका विनय नहीं समझ सका। यह बात नहीं थी कि ललिताने विनयको भर्त्सनाकी ढाल बनाने के लिये ही विनय न जाने देभा चाहा हो । असल बात यह थी कि ललिता कुछ भी छिपा रखना नहीं चाहती थी ! वह छिपा रख सकती ही न थी; यह स्वभावके विरुद्ध था। उसने जो कुछ किया है, उसका सब कुछ परेश बाबू आंखांसे देखे और विचार में जो कुछ निणव हो, उसका सारा फल ललिता स्वयं ग्रहण करे, यही उसके मनका मात्र था। अाज सवेरेसे ही ललिता विनवके ऊपर मन ही मन नाराज है। बह यह अच्छी तरह जानती है कि उसकी नाराजगी असंगत है किन्तु असंगत होने के कारण ही क्रोध कम नहीं होता, बल्कि बढ़ता ही जाता है। जब तक ललिता स्टीमरमें थी, तब तक उसके मनका भाव और तरह का था। लड़कपनसे ही वह कमी क्रोध करके, कमी हठ करके एक-न-एक अभावनीय काँट करती आई है, किन्तु अयकी घटना गुरुतर है। इस निषिद्ध काममें विनयके भी उसके साथ जड़ित हो पड़नेसे एक ओर वह संकोच का, और दूसरी ओर एक निगूढ़ हर्षका, अनुभव कर रही थी। वह हर्ष जैसे निषेधको ठकरसे अधिक उन्मथित हो उठ रहा था।