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गोरा

गोरा [२३१ एक बाहरके अादमीका उसने आज इस तरह आश्रय लिया है, उसके इतना पास आ गई है, कि उन दोनोंके वीचमें आत्मीय-समाजकी कई आइ नहीं है। इसमें कुन्ठा या संकोचका कितना बड़ा कारण था। किन्नु विनयक्री स्वामाविक नम्रताने ऐसे समयके साथ एक 'श्रावरू' की रचना कर रक्खी थी कि इस आशंकाजनक अवस्थाके बीच में भी विनयनी सुकुमार सुशीलताका परिचय-ललिताको एक भारी अानन्द दे रहा था। जो विनय उसके यहां सबके साथ सर्वदा आमोद-कौतुक करता था, जिसकी बात चीत कभी बन्द नहीं होती थी, जिसके साथ घरके नौकर चाकरोंकी मी आत्मीयता अबारित थी, वह विनय यह जैसे था ही नहीं। सतर्कताको दोहाई देकर जिस जगह वह अनायास हो ललिताके साथ अधिक और निकट रह सकता था वहाँ वह इस तरह दूर-दूर रहनेकी चेष्टा करता था कि उसीसे ललिता अपने हृदयमें उसे और भी अपने निकट अनुमव करती थी । रातको लीमर केविनमें अनेक चिन्तायोंके कारण ललिताको अली तरह नींद नहीं पाती थी। छटपटाते-ही छटपटाते एकवार उसे जान पड़ा कि अब रात बीत गई सबेरा होनेको है। धीरे-धीरे केविनका द्वार खोलकर बाहर नजर डाल कर उसने देखा, रात्रि शेत्रका शिशिर अन्धकार उन समय भी नदीके ऊपरके नुक्त आकाश और किनारे परके जङ्गलने लिल्टा हुआ है। अभी-अभी एक ठण्डी हवाके झोंकेने उटकर नदीके जलने कलरव पैदा कर दिया, और नीचेके खंडमें एजिनके खलासी अनी उठकर अपना काम शुरू कर देने वाले हैं ऐसा आभास पाया जाता है । ललिताने केबिनके बाहर आते ही देखा, थोड़ी ही दूर पर विनय एक कपड़ा पहने देत की कुर्सी पर बैठा हुआ सो रहा है। देखकर ही ललिताका कलेजा धड़क उठा। रात भर विनय इसी जगह पर बैठे पहरा देता रहा है। इतना निकट होकर भी इतना दूर है ! तब ललिता कांपते हुए रोंने, डेकसे केबिनमें आई। द्वार पर खड़े होकर उस हेमन्तके प्रेत्यूल-कालमें, उस अन्धकार-जड़ित अपरचित नदी-दृश्य के बीच, अकेले सोते विन्य के मुखकी ओर ताकने लगे। उसे देख पड़ा-सामने दिशाके