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२३६ ]
गोरा

२३६ ] गोरा इस मुशील प्रियभाषी युवकने बातकी वातमें उस स्त्रीके हृदय में सतींशके साथ प्रेमका अंश ग्रहण किया। सतीशकी मौसीने पूछा-बच्चा ! तुम्हारी माँ कहाँ है ? विनवने कहा-मुझे अपनी माँको खोये बहुत दिन हो गये, किन्तु मेरे माँ नहीं है यह वात मैं मुंहसे नहीं निकाल सकता । यह कहकर अानन्दमयी की बात स्मरण करते ही उसकी आँखें आँसुश्रोसे मर गई। बड़ी देर तक इन दोनोंके वीच वातें होती रहीं। उस समय ऐसा. नहीं जान पड़ा कि इनकी यह पहली मुलाकात है। सतीश इन दोनोंकी थातचीतमें जब अप्रासङ्गित बातें कहकर अपने लड़कपनका परिचय देने लगा । ललिता चुपचाप बैठकर इन दोनों की बातें सुनती रही। परेश बाबूको वाहर गये बहुत देर हो गई, अब भी लोटकर नहीं आये यह देख ललिता वहाँ से उठ जाने के लिए छटपटाने लगी। उसको किसी तरह रोक रखने हीके लिए विनय सतीशकी मौसीके साथ जी लगाकर बातें कर रहा था अाखिर ललिताका क्रोध रोके न रुका, वह विनयकी बातमें सहसा बाधा देकर बोल उठी---आप इतनी देर क्यों कर रहे हैं ? बाबूजी कब आयेंगे, इसका निश्चय नहीं । क्या आप गोराकी माँ के पास एक बार न जायंगे ? विनय चौंक उठा । ललिताका क्रुद्ध स्वर विनय के लिए अपरिचित न था। वह ललिताके मुंहकी ओर देखकर तुरन्त उठ खड़ा हुआ। वह किसके लिए विलम्ब कर रहा था ? उसीके लिए । यहाँ उसका कोई विशेष प्रयोजन नहीं था, वह तो दरवाजे परसे ही बिंदा हो रहा था। ललिता ही तो उसे अनुरोध करके अपने पास लाई थी; आखिर उसीके मुंहसे ऐसा प्रश्न ! विनय इस प्रकार एकाएक आसन छोड़ उठ खड़ा हुआ कि ललिता अचम्भेके साथ उसकी ओर देखने लगी। उसने देखा, विनयके मुंहको स्वाभाविक प्रसन्नता एकदम लुत हो गई, जैसे फूंक मारनेसे चिराग बुझ 1