पृष्ठ:गोरा.pdf/२४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ २४५
गोरा

गोरा [ २४५ था। वरदासुन्दरी इसी कारण ललिताके लिए योग्य वरकी बात चलाकर लामाके समीप सदा उद्वेग प्रकट करती थी। किन्तु परेश बाबू ललिताके चेहरे पर जो एक प्रकारकी शोभा देखते थे, वह न रङ्गको शोमा थी और न अवयवकी शोभा; वह अन्तःकरणकी गम्भीर शोभा था। उसमें केवल लालित्य ही नहीं था किन्तु स्वतन्त्रताका तेज और मानसिक शक्तिको दृढ़ता भी भरी थी । वह दृढ़ता सबके हृदयको मोह नहीं सकती थी। वह व्यक्ति- विशेषको अपनी ओर खींचती थी किन्तु बहुतेरोको दूर हय देती थी। संसारमें ललिताका स्वभाव लोगोंको प्रिय न होगा, यह समझ परेश बाबू उस पर कुछ खेद करते हुए उसे अपने पास विठाते--और उससे कोई खुश नहीं रहता यह जानकर ही उसके दोषों पर ध्यान न दे उसे दया को पात्री समझते थे - परेश बाबूने जब मुना कि ललिता अकेली विनय के साथ हठात् चली आई तब वे तुरन्त समझ गये कि इसके लिये उसे बहुत दिनों तक दुःस्त्र सहने पड़ेंगे। उसने जो कुछ अपराध किया है, उसकी अपेक्षा भारी अपराध का दरद लोग उसके प्रति निर्धारित करेंगे। वे इस बातको मन ही मन चुपचाप सोच रहे थे, इसी समय ललिता बोल उठी-मैंने अपराध किया है । किन्तु इस बार मैं भली भांति समझ गई हूं कि मैजिस्ट्रेटके साथ हमारे देश के लोगोका ऐसा सम्बन्ध है कि उनके अातिथ्यमें सम्मान का नाम नहीं, केवल अनुग्रहका है। यह सहकर भी वहाँ रहना क्या मेरे लिए उचित था ? , परेश बाबूने इस प्रश्न का कुछ उत्तर न दे सिर्फ मुसकराकर कहा- तु पगली है। इस घटनाके सम्बन्धमें मन ही मन चिन्ता करते हुए परेश बाबू जब शामको बाहर टहल रहे थे तब विनयने आकर उन्हें प्रणाम किया। परेश बाबूने गोरा के कैद खाने की सजाके सम्बन्धमें उसके साथ बड़ी