पृष्ठ:गोरा.pdf/२५१

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[ ३५] उस दिन ललिताके पासमे वापस आकर विनयको अपने सूने घरमें बैठना कठिन हो गया। दूसरे दिन तड़के ही उठकर वह अानन्दमयीके पास पहुँचा और कहा -- माँ, मैं कुछ दिन तुम्हारे ही यहाँ रहूंगा! यानन्दमयीको गोराके विच्छेदमे जो शोक हुआ था, उसमें सान्त्वना देने का अभिप्राय मी विनयके मन में था। यह समझकर आनन्दमयीका हृदय प्रेमसे पिघल गया ! वह कुछ न कहकर बड़े लेहसे विनयकी पीठ पर हाथ फेरने लगी! विनयने अपने खाने-पीने और सोने आदिका बहुत बड़ा झमेला खड़ा कर दिया। वह वीच-बीचमें श्रानन्दमयीके साथ भूट-मूठका झगड़ा करने लगा कि यहाँ मेरा जैसा प्रबन्ध चाहिए-नहीं होता । उसने हमेशा ही इधर-उधर की बातें सुनाकर श्रानन्दमय को और अपने को गोराकी चिन्तासे अलग रहनेकी चेन की। साँझको जब मनको बाँध रखना कठिन हो जाता, तब विनय उत्पात करके श्रानन्दमयी को घरके कामांसे हठात् रोक द्वारके सामने बरामदेमें चटाई बिछाकर बैठाता था। वह अानन्दमयीले उसके लड़कपन की बातें और उसके बापके घरकी कहानी कहलवाता । जब उसका विवाह नहीं हुआ था, जब वह अपने अध्यापक पितामहकी पाटशाला के विद्यार्थियों के बड़े आदरकी बालिका थी, और जब सभी मिलकर सब विषयोंमें उस पितृहीना वालिकाका पक्ष करते थे, जिससे उसकी विधवा माताके मनमें विशेष उद्वेग होता था, उस दिनकी सव कथा कहने को विनय उसे बाध्य करता था। विनय कहता-माँ, तुम कभी मेरी माँ न थी, यह बात मनमें आनेसे मुझे बड़ा आश्चर्य होता है। मैं तो समझता हूं कि महल्लेके सभी लड़के तुमको अपनी ही माँ समझते हैं। २५१