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गोरा

गोस [२५७ बैठे देखकर सुचरिताने उसे अपनी बातचीत के बीच खींच लानेकी चेष्टाको कोमल स्वरसे पूछा-~श्राप कई दिनसे हमारे उधर गये नहीं क्यों ? विनयने एक बार ललिता की ओर नजर डाल कर कहा-बार वार जल्दी जल्दी दिक करनेसे कहीं आप लोगों का स्नेह न गँवा बैहूँ--यही हर मालूम पड़ता है। सुचरिताने जरा हँस कर कहा-आप शायद यह नहीं जानते कि लेह भी जल्दी-जल्दी दिक करने की अपेक्षा रखता है ? अानन्दमयीने कहा--सो दिक करना तो यह खूब जानता है बेटी ! तुम लोगोंसे क्या कहूँ दिन मर इसकी फरमाइस और जिद को पूरा करते करते मेरे नाक में दम हो जाता है जरा भी फुरसत नहीं मिलती। विनयने हँसकर कहा-ईश्वरने तुमको जो धैर्य दिया है माँ, उसी की वह मेरे द्वारा परीक्षा ले रहे है। सुचरिताने ललिताको जरा ठेल कर कहा-सुनती है माई ललिता हम लोगों की परीक्षा शायद समाप्त हो गई ! हन शायद उसमें पास नहीं हो सकी। ललिताको इस बातचीतमें कुछ भी शामिल होते न देख हँस कर अानन्दमयीने कहा-अब हमारा विनय अपने धैर्यकी परीक्षा ले रहा है। तुम्हें उसने किस दृष्टि से देखा है,सो तो तुम जानती नहीं हो। शामको तुम लोगोंकी चर्चा के सिवा और कुछ वात ही नहीं करता और परेश बाबूकी भात उठने पर तो वह जैसे एकदम गल जाता है। आनन्दमयी ने ललिताके मुखकी ओर देखा । वह खूब जोर करके आखें उठाये तो रही, लेकिन वृथा-अकारण-लाल हो उटी : अानन्यमयीने कहा--तुन्हारे बाबूजी के लिए तो उसने कितने ही लोगांसे झगड़ा किया है। उसके दलके लोगोंने तो उसे ब्राह्म समाजी कहकर जाति-च्युत करनेको ठान रक्खा है। विनू , इस तरह स्थिर हो फा.नं. १७