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गोरा

गोरा [२ गोरा और विनयके प्रति उनकी श्रद्धा न हो, यह बात न थी; किन्तु आनन्दमयी सरीखी माता के ऐसे गहरे स्नेह के द्वारा उनके साथ जैसे और भी अधिक, और मी विशेष, और भी नवीन करके परिचय हुआ । अानन्दमयोंके साथ आज परिचय होने के बाद पूर्वोक्त मैजिस्ट्रेट के कार ललिताका क्रोध जैसे और भी बढ़ उठा । ललिताके मुखसे मैजिस्ट्रटके लिये जोशसे भरे तीव्र बचन सुनकर आनन्दमयी हँसी। उन्होंने कहा-बेटी गोराके आज जेलखाने में होनेसे होने वाला दुःख मेरे हृदयको कैसा व्यथित कर रहा सो वह अन्तर्यामी ही जानते हैं। लेकिन तो भी मैं उस मजिस्ट्रटके ऊपर क्रोध नहीं कर सकी । मैं तो गोराको जानती हूँ। वह जिस कामको अच्छा समझता है उसके आगे आईन-कानून कुछ भी नहीं मानता। गोराका काम गोरा कर रहा है, और अपना कर्तव्य वे लोग भी कर रहे है। इसमें जिन्हें दुख मिलता है वे दुख पावेगे ही ! मेरे गोराको चिट्ठी अगर पढ़ कर देखो वेटी, तो नुम समझ सकोगी, कि वह दुःखको नहीं डरा-किसीके ऊपर वृथाका क्रोध नी उमने नहीं किया। जिस कामसे जो फल होता है वह सब निश्वय जान कर ही वह काम करता है। यह कहकर मन लगाकर लिखी गई वह गोराकी चिट्ठी बक्ससे निकाल कर आनन्दमयीने सुचरिताके हाथमें दी, और कहा-बेटी; नुम जोरते पढ़ो, मैं एक बार सुनें । गोराकी वह अद्भुत चिट्ठी पढ़ी जा चुकनेके बाद तीनों जनी कुछ देरे तक गुमशुम होकर बैठी रहीं । आनन्दमयी ने आंचलसे आंसू पोछे। उन आसुओं में केवल मातृ हृदय की बया ही नहीं थी, उसमें आनन्द और गौरव भी मिला हुआ था। शलिता विस्मित होकर आनन्दमयीके मुखकी ओर ताक रही थी। ललिताके मनमें ब्राह्म परिवार संस्कार खूब हढ़ था; जिन स्त्रियोंने श्राधुनिक रीतिसे शिक्षा नहीं पाई, और जिन स्त्रियोंको वह पुरानी चालके हिन्दुओंके घरकी जानती थी, उनके ऊपर उसे श्रद्धा नहीं थी । लड़कपनमें