पृष्ठ:गोरा.pdf/२६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ २६१
गोरा

1 गोरा [.२६१ जैसे फटने लगता है, रूलाई आती है, साथ ही क्रोध भी आता है। किस पर क्रोध आता है, यह समझना उसके लिये भी कठिन है। क्रोध शायद अपने ही अपर होता है। केवल बार-बार यही खयाल आता है कि यह क्या हुश्रा । मैं किस तरह अपनेको समझाऊँगी ! किसी ओर कोई राह नहीं देख पड़ती ! इस तरह कितने दिन चलेगा? ललिता जानती है विनय हिंदू है; उसके साथ किसी तरह उसका व्याह नहीं हो सकता । फिर भी अपने हृदयको किसी तरह काबूमें न ला सकनेके कारण लज्जा और भय से उसकी जान जैसे सूल गई है। यह उसने समझ लिया है कि विनयका हृदय उसमे विमुख नहीं है। यह समझ लेनेके कारण ही अपने को सभालना उसके लिए आज इतना कठिन हो गया है। इसी कारणवश जब वह इस तरह अस्थिर होकर विनय की अाशासे उसकी राह देखती रहती है, तब उसके साथ ही उसके मनके भीतर एक भय होता रहता है कि कहीं विनय आ न जाय। इसी तरह अपने साथ लड़ते लड़ते अाज सवेरे उसका वैर्य ठहर न सका। उसे जान पड़ा कि विनय के न श्रानेसे ही उसके हृदयके भीतर यह अशाति मची हुई है, एक बार मुलाकात हो जानेसे ही यह अस्थिरता दूर हो जायगी। सवेरे वह सतीशको अपनी कोठरीमें खीच लाई । शतीश आज कल मौसीको पाकर विनयके साथ मित्रताकी चर्चाका एक तरहसे भूल ही गया था । ललिताने उससे कहा - विनय बाबूके साथ, आन पड़ता है तेरी लड़ाई हो गई है। सतीशने जोर के साथ इस अपवादको अस्वीकार किया । ललिताने कहा-वह तो तेरे बड़े भारी मित्र हैं । तूही केवल विनय बाबू-विनय बाबू करता है वह तो तेरी ओर फिर कर भी नहीं देखते । सतीशने कहा---हिश ! यह बात नहीं है - कमी नहीं है ? परिवार के भीतर शुद्र सतीश को अपना गौरव प्रमाणित करने के लिए इसी तरह बारम्बार गले का जोर जाहिर करना पड़ता है। आज