पृष्ठ:गोरा.pdf/२६३

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गोरा

और न । गोरा [ २६३ हुआ था। किन्तु इसी बातको एक दम अस्वीकार करनेकी चेष्टा वह मनमें करने लगी, और वही अपनी जिद बनाए रखने के लिये उसने न तो विनय की ओर एक वार आँख उठा कर देखा न नमस्कार किया, उससे एक बात तक की । विनयने समझा, उसके मनकी गुप्त बात ललिता ने जान ली है, और इसी कारण इस अवज्ञाके द्वारा वह इस तरह उसे प्रत्याख्यान कर रही है । ललिता उसे प्यार भी कर सकती है वह अनुमान करनेके उपयुक्त यात्माभिमान विनयमें नहीं था। विनयने अाकर सङ्कोचसे दरवाजेके पास खड़े होकर कहा-परेश बाबू अब घर जाना चाहते है। इन लोगोंको खबर देने के लिये उन्होंने कहा है। विनय इस तरह खड़ा था कि उस ललिता न देख पावे । अानन्दमयीने कहा—यह भी कहीं हो सकता है ! मैंह मीठा किये विना शायद चले जा सकेंगे ! अब और अधिक देर न होगी । नुम यहां जरा बैठो विनय, मैं जाकर देख पाऊँ । बाहर क्यों बड़े हो भीतर आकर बैटो। विनय ललिताकी और बाड़ करके किसी तरह दूर पर एक जगह के गया। जैसे विनयके प्रति उसके व्यवहारमें, कोई विलक्षणता नहीं हुई, ऐने ही सहज नावसे ललिताने कहा---'विनत्र, बाबू अपने मित्र सतीशको अापने बिलकुल ही त्याग कर दिया है या नहीं, जानने के लिए वह अाज सवेरे अापके घर गया था ।" एकाएक देववाणी सुन पड़नेसे मनुष्य जैन अचन्भे में अाजाय, वैने ही विस्मवसे विनय चौंक उठा। उसका वह चौंकना दिखाई दे जानेमे बह अत्यन्त लज्जित हुआ। अपनी सास के साथ वह कुछ जवाब न दे सका । मुख और कानोंकी जड़ तक लाल करके उसने कहा-सतीश गया था क्या ? मैं तो घर पर था नहीं। ललिताके इस एक साधारण बात कहनेमे ही विनय के मनमें एक अपरिमित अानन्द उत्पन्न हुआ। ललिता नाराज नहीं है; ललिताके मन- में उसकी ओरसे कोई सन्देह नहीं है !