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गोरा

२६४ ] गोरा देखते-देखने सब बाधा दूर हो गई । सुचरिता ने हँस कर कहा--विनय बाबू हम लोगोंको एक भयङ्कर जानवर समझकर दूर हो गये हैं। विनयने कहा-पृथ्वी पर जो लोग मुँह खोलकर नालिश नहीं कर सकते चुप रहते हैं, वे ही, उलटे अपराधी ठहराये जाते हैं । दीदी तुम्हारे मुँहमें यह कथन शोभा नहीं पाता | तुम आप ही बहुत दूर चली गई, इसीसे अब औरको भी दूर समझ रही हो । विनय ने आज पहले पहल सुचरिता को दीदी कहा । सुचरिताको सुनने में यह सम्बोधन मधुर मालूम पड़ा । प्रथम परिचयसे ही विनयके प्रति मुत्ररिताके मन में जो एक सौहाद उत्पन्न हो गया था उसने दीदी कह कर सम्बोधन करते ही एक स्नेह पूर्ण विशेष आकार धारण किया । परेश बाबू अपने लड़कियोंको लेकर जब विदा हो गये, उस समय दिन हुन चुका था । विनयने आनन्दमयीसे कहा-माँ, आज तुम्हें कोई काम नहीं करने दूंगा, चलो ऊपरके कमरेमें । विनय अपने चित्तकी उमंगको सँभालने में असमर्थ हो रहा था। आनन्दमयीको ऊपरके कमरे में ले जाकर फर्शके ऊपर अपने हाथसे चाई बिछाकर विनयने उस पर बिठलाया । अानन्दमयीने बिनयसे पूछः-विनू बोल, तुझे क्या कहना है ? विनयने कहा-माँ, मुझे कुछ भी नहीं कहना है; तुम्ही अपने मनकी बातें मुनायो। विनयका मन यही सुनने के लिए छटपटकर रहा था कि आनन्दमयीको परेश बाबूकी लड़कियाँ कैसी लगी। आनन्दमयीने कहा- अच्छा, इसीलिए तू शायद मुझे बुलाकर लाया है ! मैं कहती थी तुझको कुछ कहना है। विनय---बुला कर व लाता, तो ऐसे सुन्दर सूर्यास्तकी शोभा कहाँसे देखन माँ ! उम दिन कलकत्तेकी छतों पर अगहनके सूर्य मलिन भावते ही अस्त. हो रहे थे। वर्ण-छटाकी कोई विचित्रता नहीं थी । आकाशके छोरपर ।