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गोरा

२६६ ] गोग विनयने फिर पूछा-~हाँ ? अानन्दमयीने कहा - हाँ, अवश्य सम्मति दूंगी। मनुष्य के साथ मनुष्यका मन मिलना ही विवाहकी सार्थकता है। उस समय कोई मन्त्र पढ़ने या न पढ़नेसे कुछ लाभ या हानि नहीं। किसी तरह भगवानका नाम ले लेना ही यथेष्ट है भैया । विनयके मनके ऊपरसे एक बोझ सा हट गया। उसने उत्साहित होकर कहा-माँ तुम्हारे मुखसे जव इस तरहकी बातें सुनता हूँ, तब मुझे बड़ा आश्चर्य मालूम पड़ता है। ऐसी उदारता तुमने कहांसे पाई ? यानन्दमयीने हँसकर कहा-गोरासे पाई है। विनयने कहा-~गोरा तो इसके विरुद्ध ही कहता है ! प्रानन्द०- -उसके कहनेमे क्या होता है। मेरी जो कुछ शिक्षा है सब मुझे गोरासे ही प्रात हुई है। मनुष्य पदार्थ कितना सत्य है, और मनुष्य जिसके लिए दलबन्दी करता है झगड़ा करके मरता है वह कितना मिथ्या है, वह वात भगवानने उसी दिन मुझे समझा दी जिस दिन गोराको उन्होंने मेरी गोदमें मेजा ! भैया, ब्रह्म कौन है ओर हिन्दू कौन है ? मनुष्य के हृदयकी मनुष्य के श्रात्माकी तो कोई भी जाति नहीं है। वहीं पर भगवान सबको मिलान है और बार भी अाकर मिलते हैं। उन्हें ठेल कर मन्त्र और मतके ऊपर ही नितानेका भार देने से कहीं काम चल सकता है। विनयने आनन्दमबीके चरण छू कर कहा- -मां, तुम्हारी बात में बड़ी मीठी मालून देना है : मेरा आजका दिन सार्थक हो गया। i