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गोरा

। २६८ ] गोरा रह जाती थी। किसी दिन लोगोंको खिलाते-पिलाते दो बज जाते थे । किसी दिन कुछ मात्र दिन रह जाता था तब मैं खाती थी। भोजन करने के बाद फिर तुरन्त रात के लिये रसोई चढ़ानी पड़ती थी। रात में भी ग्यारह बारह बजेके पूर्व मुझे कभी भोजन करने का अवसर नहीं मिलता। था। मेरे सोने के लिए कोई खास जगह न थी। जिस दिन जहाँ जगह मिल जाती, वहीं सो रहती थी। किसी दिन तो चटाई बिछाकर रात भर जहाँ की तहाँ अकेली पड़ी रहती थी। घर के सभी लोगोंकी मुझ पर अनादर-दृष्टि थी, मेरे स्वामी भी उस पर कुछ ध्यान न देते थे । वे भी बहुत दिनों तक मुझको दूर ही दूर रखकर उन लोगों के साथ मिले रहे । जब मेरी उम्र सत्रह वर्षकी हुई तब मेरी कन्या मनोरमा ने जन्म लिया । कन्याका जन्म होने से ससुर-कुल में मेरा अनादर और भी बढ़ गया । मेरे सब अपमान और दुखोंके बीच वही लड़की एक मात्र सान्वना और विश्रामका स्थान थो। मनोरमाको उसके बाप या घर के और लोग जैसा चाहिए, प्यार नहीं करते थे। इसीसे वह मुझीको अपना सर्वत्व जानती थी। तीन वर्षके वाद जब मेरे एक लड़का हुआ, तबसे मेरी अवस्थामें परिवर्तन होने लगा। तबसे मैं गृहिणी कहलाने योग्य हुई। सब लोग मुझे कुछ-कुछ अादरकी दृष्टिसे देखने लगे। मेरे सास न थी, ससुर भी मनोरमाके जन्मके दो वर्ष बाद संसारसे विदा हो चुके थे। उनकी मृत्यु होते ही धन सम्पत्ति के लिए-आपस में कलह उपस्थित हुश्रा ! मेरे देवरोंने अपना अंश विभक्त कर लेनेके लिये मुकदमा दायर किया । आखिर उस मामलोंमें बहुत रुपया बरबाद करके हम सब अलग हुए । अब मनोरमाके न्याहका समय आया । अधिक दूर पर ब्याह करनेसे पीछे लड़कीको देखना कठिन समझकर मैंने कृष्णनगरसे पाँच छः कोसके फासले पर राधानगर में उसका व्याह कर दिया। दूल्हा देखने में । ।