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गोरा

गोरा [ २७ 1 देती हाँगी ! माँको जब मन में कोई कष्ट होता है, तब वह कोई न कोई शिल्प का काम लेकर बैठ जाती है। उनके उसी काम में लगे हुए चुप- चाप सुनके चित्रको विनय अपने मन में देखने लगा। उसने अपने मनमें कहा-इस मुख की लेहपूर्ण दीति मेरे मन के विक्षेप से मेरी रक्षा करे-- मेरे मनके इस उचाट भाव को दूर करे। वह मुस्वही मेरे लिये मातृभूमि की प्रतिमा हो, नुझको कर्तव्य की ओर ले जाय और कर्तव्य के पालन में डेढ़ रक्खे। उसने मनहीं मन एक बार अानन्दमयी को माँ कह कर पुकारा और कहा कि मैं इस यातको किसी भी शास्त्रके प्रमाण में स्वीकार नहीं कर सकता कि तुम्हारा दिया हुअा भोजन मेरे लिए अमृत नहीं है। कमरे में सन्नाटा था। केवल घड़ी के चलने का खटखट शब्द हो रहा था । उस कमरे में बैठना विनयके लिए असह्य हो उठा । लैंप के पास ही दीवाल पर एक छिपकली किसी कीड़ेको पकड़ने की घातमें लगी हुई थी---- उसकी और कुछ देर ताकते रह कर विनय उठ खड़ा हुआ और छाता लेकर घर से निकल पड़ा। उस समय भी विनय यह कुछ निश्चय न कर सका था कि कहाँ जायगा, क्या करेगा। जान पड़ता है, अानन्दनयी के पास फिर जाना ही उसके मनका अभिप्राय था। किन्तु वीच ही में एक बार उसे खयाल श्रा गया कि आज रविवार है, ब्राह्मसमाज में बाबू केशवचन्द्र सेन का व्याख्यान होगा, उमे नुनना चाहिये । इस खवाल का आना था कि वह फौरन सब दुविधा दूर करके जोरसे पैर बढ़ाता ठुला उधर ही चला । वह उसे मालूम था कि केशव बाबूका व्याख्यान अब समान हो चुका होगा, क्योंकि देर अधिक हो गई थी, तो भी उसका संकल्प विचलित नहीं हुया । न्याख्यानके स्थान पर पहुँच कर देखा, उपासक लोग उपासना इत्यादि करके मन्दिरके बाहर निकल रहे हैं। वह सिर पर छाता लगाए रास्ता के किनारे एक कोने में खड़ा हो गया-उसी समय शान्त प्रसन्न मुख परेश बाबू मन्दिरके भीतरसे निकले । उनके साथ चार पाँच श्रादमी थे। विनय को उनमें से केवल एक आदमी का तरुण मुख, रास्ते के गैस के