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गोरा

बता गोरा २७२] मैंने अपने गुरु महाराजको बुलाया और उनसे कहा-महाराज, मैं इस असम यन्त्रणासे कैसे उद्धार पाऊंगी, उसका उपाय दीजिए । घरके किसी काममें मेरा जी नहीं लगता। मेरे हृदय में शोककी अाग दिन-रात जलती रहती है। मैं जहां जाती हूं, जिधर जाती हूँ, कहीं मेरी ज्वाला शान्त नहीं होती। इस यन्त्रणासे मुक्त होने का कोई मार्ग नहीं सूझता। गुरु महाशयने नुनको हारेमन्दिरके भीतर ले जाकर कहा--- ---भाजल तुन इनका मजन करो। चं गोपीरमगाजी ही तुम्हारे लामी, पुत्र , कन्या सब कुछ है। इनकी सेवा करनेही से तुम्हारे सब दुःख दूर होंगे। तबसे मैं दिन रात ठाकुरजी की नेवा में हाजिर रहने लनी । उनको मैं अपना मन सौंप देनेकी चेष्टा करने लगी। किन्तु जब उन्हें मेरा मन लेना पसन्द न था तब मैं उनको कैसे अपना मन देती ? मुझ अभागिन का मन लेकर वे क्या करते? मैंने नीलकान्तको बुलाके कहा-नील वाबू, मैंने अपने सारी सम्पत्ति देवराका लिल देनेका निश्चय किया है । वे वृत्ति के रूप में हर महीने मुझे कुछ रुपया दे दिया करेंगे। नीलकान्त ने कहा-यद कम नहीं हो सकता । श्रार स्त्री हैं ये बातें आप क्या जाने ? मैंने कहा-मैं अब सम्पत्ति लेकर क्या करूंगी? नोल-यह आप क्या कहती है ? जो अापका अंश है वह स्त्रों गी : इस तरहका पागलपन मत कीजिए। नालकान्त नरं इनका फिनाक हाथ देना नहीं चाहता था। मैं बड़ा नुश्किल में पड़ा। जमींदारीमा काम नुन किन से भी बढ़कर नबङ्कर मालूम हो रहा था। किन्तु संसारमें नेरा यहीं एक मात्र नीलकान्त विश्वासी था। मैं उसके मनको ऋष्ट देना भी नहीं चाहती थी । उसने कैंस कैसे दुःख झेलकर मेरे अंशको बचाया है, यह