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गोरा

गोरा [ २७७ 1 उन्होंने कहाइलावेजमें कोई परवरिश का जिक्र नहीं ! तब मैं अपने टाकुरजीको लेकर अपना विवाह होनेके ठीक ३४ वर्ष बाद अपने सामुरके घरसे चलदी । नीलकान्त की खोज करनेपर मालूम कि वह मेरे चलने के पूर्व ही वृन्दावन चला गया। मैं गाँव के तीर्थ-यात्रियों के साथ काशी गई। किन्तु इस पापी मनको कहीं शान्ति न मिली । मैं ठाकुरजी से नित्य पुकार कर कहती थी--- हे नाय ! मेरे स्वामी मेरे बाल्यकालमें मेरे साथ जैसा सत्य माव धारण किये हुए थे। तुम भी वैसा ही सत्य भाव धारण कर मुझे दर्शन दो। किन्तु उन्होंने मेरी प्रार्थना न सुनी। मेरे हृदयका ताप दूर न हुआ। मैं दिन रात रोया करती थी। हाय ! मनुष्य के प्राण भी कैसे कठिन होते है । मैं अाठ वर्ष की उम्र में ससुराल गई थी। फिर लौट कर वापके घर न जा सकी । तुम्हारी माँ के विवाहमें जानेके लिए मैंने बहुत चेष्टाकी परन्तु सब व्यर्थ हुअा। इसके अनन्तर पिताजीके पत्रसे तुम सर्वोके जन्म का हाल मालूम हुआ ! मैंने अपनी वहिनके मरनेका भी सम्बाद तुना । उसे सुनकर तुने जो दुःख हुआ सो क्या बताऊँ तुम सबोंका, मातृ हीन होने पर भी, गोद में खिलाने का अवसर ईश्वर ने मुझे न दिया । तीर्थमें भ्रमण करके भी जब मैंने देखा कि माया मेरा साथ नहीं बोड़ती हृदयका एक अवतन्त्र पाने के लिए अब तक मेरे मनमें कृष्णा लगी है नत्र मैं तुन लोगोका खो करने लगी ! यद्याप मैंने सुना था तुम्हारे पिताने सनातन धर्म को छोड़, ब्राह्म समाजियोंसे नाता जोड़ लिया है तथापि तुम लोगोंकी ममता मेरे मनसे न गई। तुम्हारी माँ मेरी संगी बहन थी। एक ही माँ के पेट से हम दोनों उत्पन्न हुई थी। काशीम एक सज्जन पुरुषके द्वारा तुम्हारा पता पाकर मैं यहाँ चली आई।"