पृष्ठ:गोरा.pdf/२८

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गोरा

गोरा . २८ ] प्रकाश में, एक भासक देख पाया। उसके बाद गाडीके पहियोंका शब्द हुआ, और दम भरमें बह दृश्य अन्धकार के महासमुद्र में पानीके एक बुल्लेकी तरह गायब हो गया। विनय का फिर मोरा के घर जाना नहीं हुआ । मन में अनेक बातोंकी उधेड़ बुन करता हुआ विनय घर को लौय । दूसरे दिन तीसरे पहर जब वह घरसे निकलकर घूमते घूमते अन्त में गोरा के घर पहुंचा, तब वर्षा समाप्त हो चुकी थी, और सन्ध्या का अन्धकार धना हो पाया था । गोरा उसी समय रोशनी बला कर लिखने बैठा था ! गोरा ने विनय की ओर विना देखेही, कागज परसे दृष्टि विना हटाए ही कहा—क्यों जी विनय हवा किस रुखकी है ? विनयने उस बातको जैसे सुनाही नहीं, इस तरह कहा गोरा मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ,--भारतवर्ष क्या तुम्हारे नजदीक खूब सत्य है ? खूब स्पष्ट है ? तुम तो दिन रात उसे अपने मन में रखते हो, किन्तु मैं पूँछता हूँ कि किस तरह मनमें रखते हो ? गोराने लिखना छोड़ कर अपनी तीक्ष्ण दृष्टि डाल कर विनय के मुख की ओर ता। उसके बाद कलम को रख कर कुर्सी की पीठके सहारे सीधे हो कर उसने कहा--जहानका कसान जब यात्रा करता है तब जैसे खाते पीते काम के समय और विश्राम के समय समुद्र पार के बन्दरगाहको अपने मन में रखता है, वैसेही मैंने भी अपने भारतकों मनमें रखा है। विनयने पूछा-तुम्हारा वह भारत कहाँ है ? गोराने छाती पर हाथ रख कर कहा--मेरे यहाँ के कम्पास का कांटा दिन रात जिधर फिरा रहता है वहाँ है; तुम्हारे मार्सडन साहब की हिस्ट्री आफ इण्डिया में नहीं है। विनयने कहा तुम्हारे कम्पासका कांटा जिधर है उधर क्या कुछ है मी? गोराने उत्तेजित होकर कहा है नहीं तो क्या ? मैं राह भूल सकता हूँ, डूब कर मर सकता हूँ, किन्तु मेरा यह लक्ष्मीका बन्दरगाह मौजूद है। वहीं भेरा पूर्णस्वरूप भारतवर्ष है । वह भारतवर्ष जो धनसे भरा