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२८० ]
गोरा

२८० ] मोरा है। हम लोग छूआ-छूत नहीं मानतीं । हमारे घरमें रहकर हिन्दू धर्म निभाना चाहेगी, तो कैसे निभेगा ? मैं किसी तरह उसे इस काममें सहायता दूंगी। वरदासुन्दरी अनेक प्रकारके कष्ट देकर भी हरिमोहिनीको न भगा सकी। हरिमोहिनीने माना कठिन से कठिन कष्ट सहने का प्रण कर लिया था । अब हरिमोहिनीने देखा कि पानी लानेवाला कोई नहीं है तब उसने रसोई बनाना एकदम छोड़ दिया । वह ठाकुर जी को दूध और फलोंका मोग लगाकर प्रसाद स्वरूप कुछ खाकर दिन काटने लगी। मुचारताको यह देख बड़ा दुःख हुआ । मौसीने उसे बहुत तरहसे समझाकर कहा- बेटी, तुम खेद मत करो, यह मेरे लिए बहुत अच्छा हुआ है। मैं यही चाहती थी। इसमें मुझे कोई कष्ट नहीं, आनन्द ही होता है। सुचरिताने कहा-अगर मैं दूसरी बातिके हाथका छा खाना छोड़ हूँ तो तुम मुझे अपना काम करने दोगी ? हरिमोहिनीने कहा-बेटी, तुम मेरे लिए अपना धर्म क्यों छोड़ोंगी ! तुम जिस धर्मको मानती हो उसीके अनुसार चलो। मैं जो तुभको अपने पास बराबर हाजिर पाती हूँ, तुम्हें छातीसे लगाकर जी ठण्ठा करती हूँ वह क्या मेरे लिए थोड़ा सुख है ? परेश वाबू पिताके तुल्य तुम्हारे लिए पूज्य हैं, तुम्हारे गुरु हैं । उन्होंने तुमको जो शिक्षा दी है. तुम वही मान- कर चलो । उसी में भगवान् तुम्हारा कल्याण करेंगे। हरिमोहिनी बरदानुन्दरीका सब उपद्रव इस तरह तहने लगी, जैसे वह उसे कुछ समझती ही न हो । परेश बाबू जब नित्य सवेरे उसके पास अाकर पूछते थे-~-हो कुछ तकलीफ तो नहीं होती, तब वह कहती थी-नहीं, मैं बड़े आरामसे हूँ। किन्तु बरदानुन्दरीका अनुचित व्यवहार दुचरिताको असह्य होने लगा | वह किसीके पास रोकर अपना दुखड़ा सुनाना नहीं चाहती थी। विशेषकर परेश वाइसे वरदासुन्दरीके कुंव्यवहारकी शिकायत करना उसके ।