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गोरा

1 २८८ गोरा तुम्हारी सम्मति पाने पर ही सब बातें तय हो जायँगी फिर उसमें कोई बाधा न होगी। मैंने निश्चय किया है, इस रविवार के अगले रविवारको--- उनकी बात काटकर सुचरिता वीच हो में बोल उठी-नहीं । सुचरिता के मुँहसे स्पष्ट और कर्ण-कटु अत्यन्त संक्षिप्त "नहीं" नुनकर हारान बाबू ठिठक गये। सुचरिताको वह अपने ऊपर विशेष अनु- रक्त समझते थे। यह एक मात्र "नहीं" शब्द रूपी बाणसे मेरे प्रस्ताव को वीच ही में काट गिरावेगी, ऐसा खयाल उनके मन में कमी न हुआ था! उन्होंने नष्ट होकर कहा- नहीं ! नहीं के मानी क्या? क्या तुम और कुछ देरी करना चाहती हो ? सुचरिताने फिर कहा-नहीं ? हारान बाबू ने आश्चर्य के साथ कहा-तो फिर ? सुचरिताने सिर हिलाकर कहा—विवाह के लिए मेरी सम्मति नहीं है। हारान बाबूने हताश होकर पूछा-सम्मति नहीं है, इसके मानी ? ललिताने हैंसकर कहा-हारान बाबू, आज आप मानी, का 'अर्थ' क्यों भूल गये? हारान बाबूने कड़ी दृष्टिसे ललिताकी ओर देखकर कहा -मातृभाषा भूल जाने की भूल स्वीकार करना सहज है किन्तु जिस व्यक्तिकी बात पर मेरी बरावर श्रद्धा हो उसे मैं ठीक नहीं परख सका, यह स्वीकार करना महज नहीं है। ललिताने कहा -- दूसरेके मनका भाव समझने में समय लगता है। परन्तु कभी-कभी अपने सम्बन्ध में भी यह वात संगठित होती है। कितने ही लोग अपने मनका भाव आप ही शीत्र नहीं समझते। हारान बाबूनं कहा-शुरूसे आजतक मेरी बात, विचार या व्यवहार में कुछ अन्तर नहीं आया है ! मैं अपनेको कुछ अँचानेका किसीको अवसर नहीं देता, यह बात मैं जोर देकर कह सकता हूँ। सुचरिता ही कहे, मैं ठीक कहता हूँ या नहीं ?