पृष्ठ:गोरा.pdf/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[२९
गोरा

[ २६ ज्ञानसे संपन्न और धर्मसे परिपूर्ण है, कहीं भी नहीं है ! है केवल चारों ओर का यह मिथ्या! यही तुम्हारा कलकत्ता शहर, यही आफिस, यही अदालतें, यही कुछ एक ईंट काठके बने बुदबुद !-छीः ! यों कह कर गोरा कुछ देर तक एक टक विनय के मुँहकी अोर ताकता रहा। विनय कुछ उत्तर न देकर सोचने लगा। गोराने कहा-यही जहाँ हम पढ़ते लिखते हैं, नौकरो की उम्मेदवारी में धूमते फिरते हैं, दस से पाँच बजे तक भूत की तरह जुट कर मेहनत करते हुए क्या करते हैं- उसका कुछ ठिकाना नहीं । इस जादूगर के मिथ्या भारत वर्ष को हमने सत्य समझ लिया है, इसी से हम इकतीस करोड़ मनुथ्य मिथ्या मान को . मान मान कर मिथ्या कर्म को कर्म मान कर, दिन रात विभ्रान्त हुए फिरते हैं। इस महामरीचिका के भीतर से क्या हम किसी तरह की चेष्टा से प्राण बचा सकेंगे ! इसी से तो हम प्रति दिन भूखे मरते हैं। भैया, एक सत्य का भारतवर्ष-परिपूर्ण भारतवर्ष है, उस जगह स्थिति हुए बिना हम लोग क्या बुद्धि में और क्या हृदय में यथार्थ प्राण रसको खींच नहीं ले सकते । इसी से कहता हूँ कि और सब भूल कर- -किताबी विद्या, खिताबका मोह, उच्छवृत्तिका प्रलोमन, यह सब झिटके से तोड़कर फेंक देना होगा और अपने जहाजको उसी बन्दरगाह को तरफ ले जाना होगा, उसमें डूबना होगा तो डूब जायेंगे, मरना होगा तो मर भी जायँगे । क्या मैं बॉ ही भारतवर्ष की सत्य मूर्तिको, पूर्ण मूर्तिको, किसी दिन भूल नहीं सकता! विनय-क्या ये सब केवल उत्तेजना की बातें नहीं हैं। क्या तुम यह सब सत्य कह रहे हो? गोराने बादलकी तरह गरच कर कहा-मैं सत्य ही कहता हूँ। बिनय-अच्छा जो लोग तुम्हारी तरह नहीं देग्न पाने ? गोराने मुट्ठी वाँध कर कहा- उन्हें दिखा देना होगा । यही तो हमारा का है । सत्य की मूर्ति स्पष्ट देखे बिना लोग किस उमछाया के --