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गोरा

२३० ] गोरा हारान बाबू कुछ न बोलकर चुपचाप बैठे रहे। उन्होंने मनमें कहा- अच्छा, मैं जब तक अपने मनकी बातें नुचरिता से न कह लूँगा, तब तक न टलूँगा। बड़ी देर तक इस तरह बात-चीत होनेके पीछे यह बात स्पष्ट रूप से समझ में आगई कि हारान वाबू नहीं उठेगे । तब मुचरिताने विनय से कहा --बहुत दिनोंने मांसी के साथ आपकी भेंट नहीं हुई, इसलिए वे प्रायः रोज ही आपका जिक्र करती हैं क्या आप एक बार उनको देखने न चले गे? विनयने कुरसीसे उटकर कहा जब मैं यहाँ आया हूँ तब बिना उनको देखे कैसे जा सकता हूँ। विनयको जब सुचरिता अपनी मौसीके पास ले गई तब ललिता ने उटकर कहा-हारान वाबू मुझने तो अब आपका कोई विशेष्य प्रयोजन नहीं है। हारान बाबूने कहा--नहीं । नालूम होता है, तुम्हे और किसी जगह कोई आवश्यक काम है, तुम जा सकती हो! ललिता उनकी बात का मर्म समझ गई। उसने तुरन्त उद्धत भावसे सिर हिलाकर उनकी साङ्केतिक वात को खोलकर कह दिया-विनय थाचू श्राज बहुत दिनोंमें आये है, मैं उनसे बातचीत करने जाती हूं ! यह कहकर वह झट वहाँ से चली गई। विनयको देखकर हरिमोहिनी बहुत प्रसन्न हुई। किन्तु उसपर इसका कुछ विशेष लेह था, केवल इसी कारण नहीं । बल्कि इस घरमें बाहरका जो कोई हरिमोहिनी को देखने आता था वह उसे एक विचित्र जीव की सरह समझती थी। ये लोग ठहरे कलकत्ते के रहने वाले, सनी अंगरेजी और अन्य भाषायें लिखने पढ़ने में उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ-उन सवोंके द्वारा अपमानित होने के कारण यह बड़े संकोच में पड़ जाती थी। ऐसी अवस्थामें विनय इसे एक अवलम्ब सा मिल गया था। विनय भी कलकत्ते का ,