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गोरा

। २६२ ] गोरा विनयने हरिमोहनी के साथ आत्मीयता दिखाने के अभिप्रायसे कुछ प्रसाद पानेकी इच्छा प्रकट की। हरिमोहिनी ने भर उठकर एक छोये सी थाली में ठकुरजी का भोग लगा भीगा चना, कुछ मेवा-मक्खन मिसरी और केला तथा एक कटोरेमें थोड़ा सा दूध लाकर बड़े प्रेम से विनय के आगे रख दिया। विनय ने हंसकर कहा-मैं असमयमें भूख की बात चलाकर मौसी को तकलाफ देना चाहता था किन्तु मैं ही ठगा गया । वह कहकर वह खूब आडम्बर के साथ भोजन करने बैंठा । इसी समय वरदासुन्दर वहाँ आ पहुंची। विनय ने अपने आसन पर बैठे ही बैठे जरा सिर नवाकर नमस्कार करने की चेष्टा करते हुए कहा- मैं बड़ी देर तक नीचे बैठा था । आपका दर्शन न हुआ।' वरदासुन्दरी ने इसका कोई उत्तर न देकर सुचरिताके प्रति लक्ष्य करके कहा-यह तो यहां बैठी हैं ! मैं क्या जानती थी कि यहां समा लगी है । सब आनन्द लूट रहे हैं। उधर बेचारे हारान बाबू सबरसे इसके लिए अपेक्षा किये बैठे है, मानों वे इसके बाग के माली है । मैंने वचपनसे इसको पाल-पोसकर इतना बड़ा किया है, अरे बाबू ! इतने दिन तो इसका ऐसा व्यवहार कभी न देखा था! कौन जाने, आज कल यह सब सीख कहां से पा रही है। हमारे घरमें जो बात कभी न होती थी वहीं आजकल होने लगी है। समाज के लोगोंके आगे हम लोग मुंह दिखलाने योग्य न रहे। इतने दिन तक बड़े यत्न से जो शिक्षा दी गई थी वह सब दो ही दिन में न जाने कहाँ उड़ गई ! यह क्या माजरा है, कुछ समझ में नहीं पाता। हरिमोहिनीने डरकर सुचरितारं कहा-नीचे कोई बैठा था, यह मैं न जानती थी । बड़ा अन्याय हुया वेटी ! तुम शीव गानो मैंने तुमको बिठा रक्खा, यह मुझसे बड़ी भूल हुई ! इसमें हरिमोहिनीकी रत्ती भर भूल नहीं है, यह कहने के लिए लालेता तुरन्त उद्यत हो उठी थी, परन्तु सुचरिताने चुपचाप जोर से ।