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गोरा [ २९६ दवांजेके सामने एक आसन बिछाकर वे उपासना करते थे। उनके उजले केशोंसे सुशोभित मुखमण्डल पर सायंकालीन सूर्यकी आमा पड़नेसे उनका मुख और भी दीप्तिमान हो उठता था । उसी समय सुचरिता पैरोंकी आहट बचाकर चुपचाप उनके पास आकर बैठती थी। वह अपने अशान्त, व्यथित चित्तको मानों परेश बाबूकी गम्भीर उपासनामें डुबा रहती थी । अाजकल उपासनाके अन्तमें प्रायः परेश बाबू नित्य देखते थे कि हमारी यह लड़की, यह शिष्या, चुपचाप हमारे पास बैठी है। वे उसको अनिर्वच- नीय आध्यात्मिक माधुर्य द्वारा परिवेष्टित देख अन्तःकरणसे चुपचाप आशीर्वाद देते थे परेश बाबू के जीवनकी गम्भीर शान्तिका कुछ सुख पानेकी इच्छासे सुचरिता कोई न कोई बहाना करके उपासनाके समय उनके पास जा बैठती थी । वह अपने चिन्तित चित्तमें शान्ति पहुंचाने के लिए परेश वाबुके पैरों पर मस्तक रखने के सिवा और कोई सुगम उपाय न देखती थी। सुचरिता अपने अटल वर्वक साथ सब श्राधाको चुपचाप सह लेने हीमें अपना कल्याण सनाती थी। उसका खयाल था कि इस विषय में कुछ न बोलने से आप ही बार सब बखेड़े निः जायंगे । परन्तु यह न हुआ । उसे और ही उपायका अवलम्बन करना पड़ा। वरदासुन्दरीने जब देखा कि क्रोध करके या विकार देकरके सुचरिता को राजी करना सम्भव नहीं है और परेश बाबूमे नी इस विषय में सहायता पाने की कोई आशा नहीं है तब हरिमोहिन के प्रति वह भूवा बाधिनकी तरह क्रुद्ध हो उठी । घरमें हरिमोहिनीका रहना उसे उठते-बैठते बैचैन करने लगा। उस दिन वरदासुन्दरीके पिताके मृत्यु-दिनकी वार्षिक उपासना थी। इस उपलक्ष्य में उसने विनयको नेवता दिया - था। उपासना सायं- कालको होनेवाली थी। उसके पूर्व ही वह उपासना-गृहको सजा रही थी। सुचरिता और वरदासुन्दरीकी लड़कियाँ भी उसकी सहायता कर रही थीं।