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गोरा

गौरा [३१६ । भोजन के अनन्तर हरिमोहिनी अपनी चटाई पर लेटी है और नोंद पानेकी वाट जोह रही है। सुचरिता अपने खुले केशोंको पीटकी ओर करके चटाई पर बैठी है और सिर नीचे किये, गोदमें तकिया रखकर हाथ में किताव लिये बड़े ध्यान से कुछ पढ़ रही है। ललिताको एकाएक घरमें आते देख मुचरिताने मानो लजाकर भट हाथकी किताबको बन्द कर नीचे रख दिया। फिर लज्जाको लज्जासे ही दवाकर उस किताबको हाथमें ले लिया। यह किताब गोराके लेखांके संग्रह के सिवा और कुछ न थीं। हरिमोहिनी झट उठ बैठी और बोली-ग्राओ बेबी, ललिता, आकर बैटो ! नुम्हारा घर छोड़ने से मुचरिता पर जो बीत रही है, सो मैं जानती हूं । यहाँ उसका जरा भी जी नहीं लगता। जी बहलाने ही के लिए वह किताव लेकर पढ़ने बैटती है । अभी मैं पड़ी-पड़ी यही सोच रही थी कि तुममें न कोई यहाँ आती तो अच्छा होता इतने में तुन यहाँ श्रा ही तो गई। वेटी, तुन बडुन देन को नाय ननमें 5 बाने थी, उन्हें नुचरिता के पास बैठकर मुनाना उसने पारम्भ किया। उसने कहा-बहन, इस मुहल्लेमें यदि लड़कियों के लिए एक स्कूल खोल दिया जाय तो कैसा हो ? हरिमोहिनीने विस्मित होकर कहा-इसकी बात तो सुनी। क्या हुन .. स्कूल खोलोगी? सुचरिता बोली--स्कूल कैसे जारी होगा ? कोई सहायता भी तो करें। ऐसा कोई देखने में नहीं आता जो हम लोगों को इस कार्य में सहा- न्यता देगा । बाबूजीसे इस बात का जिक्र किया था ? ललिता-हम और तुम दोनों मिलकर पढ़ा सकेंगी। प्रार्थना करने पर शायद बड़ी बहन भी राजी हो जाय । सुचरिता--सिर्फ पढ़ाने ही की बात तो नहीं है। किस प्रकार स्कूलका काम करना होगा, उसके लिये सब नियम चाहिए । एक मकानका प्रबन्ध ---