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गोरा

३२२] गोरा उस समय परेश बाबूफे घरकी लड़कियोंके पढ़ने-लिखनेका यश दूर-दूर तक फैल गया था ! यहाँ तक कि वह यश सत्यका भी अतिक्रम कर गया था। इसलिए कितने ही गरीब लड़कियोंके माँ-बाप खुश हो उठे कि वे ही हमारी लड़कियों को विना फीसके पढ़ावेंगी। पहले पाँच छः लड़कियोंको लेकर ही ललिताने स्कूल जारी कर दिया। इस स्कूलके क्या क्या नियम होने चाहिये, कब क्या पढ़ाना होगा, इस विषयमें परेश बाबूसे परामर्श तक लेनेका अवसर ललिताको न मिला । वह एकाएक इस काममें प्रवृत्त हो गई। यहाँ तक कि साल के आखीरमें इम्तिहान हो जाने पर लड़कियोंको कैसा पुरस्कार देना चाहिए इस विषय पर लावण्य के साथ ललिता तर्क-वितर्क करने लगी। ललिता पुरस्कार या पाठके लिए जिन पुस्तकों का नाम लेती थी उन्हें लावण्य पसन्द न करती थी और इस विषयमें लावण्य जो कुछ कहती थी, यह ललिताको पसन्द न आता था । लड़कियोंकी परीक्षा कौन लेगा, इस पर भी बहस हुई । लावण्य यद्यपि हारान बाबू को जी. से पसन्द न करती थी तथापि वह उनके पण्डित्य से परिचित थी और उनकी विद्या का सुयश सर्वत्र ख्यात है यह वह जानती थी। हारान बाबू उस पाठशाला के परीक्षक या निरीक्षक नियुक्त हों तो उस पाठशाला का विशेष नाम होगा, इस विषय में उसे कुछ भी सन्देह न था किन्तु ललिताने इस बातको एकदम अस्वीकार कर दिया । दो ही तीन दिनके भीतर उसकी छात्रियों की संख्या घटते-घटते क्लास खाली हो गया । ललिता अपने सूने क्लासमें बैठकर लड़कियोंके आने को बाट जोहने लगी। किसीके पैरों की आहट सुनकर वह किसी छात्रीके आने को आशङ्का से चकित हो उठती थी । इस प्रकार जब दो-पहर बीत गया तब उसने समझा कि किसीने विघ्न डाला है। पासमें जो छात्री रहती थी उसके घर ललिता गई। छात्री आँखोंमें आँसू भरकर रोती हुई सी बोली—माँ मुझको जाने नहीं देती हैं। उसकी