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गोरा

गोरा से छिपा न था इसके लिए उन्हें कभी-कभी बड़ी चिन्ता करनी पड़ती है। विनयके प्रति ललिताके मनका भाव खिंच गया है, इस सम्बन्धनं यदि उनके मनमें सन्देह न होता तो वे बाहरकी बात पर कुछ भी ध्यान न देते ! किन्तु विनयके ऊपर यदि यथार्थमें ही ललिताका अनुराग उत्पन्न हुआ तो ऐसी अवस्थामें क्या करना उचित है, यह प्रश्न वे कई बार अपने मनसे पूछ चुके हैं । जबसे उन्होंने खुल्मखुल्ला ब्राह्म-धर्मकी दीक्षा ली है। तबसे यही पहले पहल उनके घर में एक संकटका समय उपस्थित हुआ है। इसलिए एक और उन्हें समाजका मम भीतर ही भीतर कष्ट और दूसरी ओर उनकी समस्त चित्तवृति सिमट कर उनमे कह रही है कि ब्राह्मधर्म-ग्रहण के समय जैसे एक मात्र ईश्वरकी ओर दृष्टि रखकर ही मैं कठिन परीक्षा में उत्तीण हुअा हूँ, सत्य को ही मुन्न-सम्पत्ति-समाज आदि सबके ऊपर मानकर यह जीवन चिरकाल के लिए धन्य हो चुका है वैमे ही अब भी यदि कठिन परीक्षाका दिन आ गया है तो उसी सत्यकी ओर लक्ष्य रखकर मैं उत्तीर्ण हुँगा । ललिनाके प्रश्न के उत्तरमें परेश गबूने महा-विनयको तो मैं बहुत अच्छा समझता हूँ ! उसकी नैसी ही विद्या और बुद्धि है वैसा ही चरित्र भी उत्तम है। कुछ देर चुप रहकर ललिता बोली-गौर वाबूकी माँ इधर दो दफे पर आई हैं। मैं सुचरिता बहन के साथ उनके घर जाना चाहती हूँ। परेश बाबू सहसा कोई उत्तर न दे सके । वे बवो जानते हैं कि जब हमार दरकी दालोचना समान में सर्वत्र हे रही है सब इस प्रकार वहाँ आने जाने के निन्द्रा और में बढ़ जायगी : किन्तु उनकी आत्मा घोल उर्छ कि जब तक यह अन्याय नहीं है तब तक मैं रोक न सकूँगा ! उन्होंने कहा- अच्छा, जालो ! मुझे काम है नहीं तो मैं भी तुम्हारे साथ चलता। -:०