पृष्ठ:गोरा.pdf/३२८

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[४५] स्वप्नमें भी विनयको इस बातकी आशंका न थी कि इष्ट मित्र और अतिथि की भाँति जहाँ मैं नित्य देखटके जाता पाता हूँ वहाँ एक ऐसा सामाजिक ज्वालामुखी पहाड़ छिपा है जो किसी समय भयङ्कर गोले बरसावेगा। जब वह पहले, प्रारम्भ में परेश बाबूके घरमें उनके परिवार के लोगोंसे मिलने जाता था तब उसके मन में बड़ा संकोच होता था। उसे यह ठीक-ठीक मालूम न था कि मेरे अधिकारकी सीमा कहाँ तक है, इसलिए वह फूंक-फूंककर पैर रखता था। उसके जी में बराबर डर लगा रहता था कि मुझसे कोई काम अनुचित न हो पड़े । क्रमशः जब उसका भय दूर हो गया तब उसके मन से तब तरहकी झिझक हट गई । आज जब उसने एकाएक यह वात सुनी कि मेरे व्यवहार से ललिता को समाजके लोगोंके सामने निन्दित होना पड़ा है तब विनयका माथा ठनका । एक दिन दोपहर-को वरदासुन्दरीने चिट्ठी लिखकर विनयको बुलाकर पूछा-विनय वाबू , आप तो हिन्दू हैं ? विनयके 'हाँ' कहने पर फिर उसने पूछा-हिन्दू समाजको तो आप छोड़ न सकेंगे ? विनयके इसे असम्भव बताने पर वरदासुन्दरीने कहा-"तो क्या अपने"--इस "क्यों" का कोई उत्तर विनय के मुँह में न आया । वह अपराधी की भाँति सिर नीचा किये बैठा रहा । उसने समझा मानों मेरी चोरी पकड़ी गई। मेरी एक ऐसी बात सब लोगोंके सामने जाहिर हो गई है, जिसे मैंने सूर्य, चन्द्र और वायु से भी छिपा रखना चाहा था। वह बार-बार इसी बातको. सोचने लगा, परेश बाबू क्या कहते होंगे, ललिता अपने मनमें क्या कहती होगी और सुचरिता ही मुझे कैसा समझती होगी। इसके बाद परेश बाबूके कोठेका दरवाजा पार करते ही उसने ललिताको देखा, जिससे उसकी इच्छा हुई कि ललिता से इस अन्तिम ३२८