पृष्ठ:गोरा.pdf/३३६

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ललिताने आकर परेश वाबूसे कहा-हम लोग ब्राह्म हैं, इसलिए कोई हिन्दू लड़की हमारे पास पढ़ने नहीं आना चाहती । इसीसे सोचती हूँ, हिन्दू-समाजके किसी आदमीको इस मामलेमें शामिल करनेसे काम में सुबीता होगा। क्या कहते हो बाबूजी ? परेशबाबू ने पूछा--हिन्दू समाजका आदमी कहाँ मिलेगा ? ललिताने कहा- क्यों, मिलेगा क्यों नहीं ? यहीं देखो, विनय बाबू है। परेश बाबूने कहा- विनय राजी क्यों होंगे ? ललिताने कहा-सो वह राजी हो सकते हैं परेश वाबू जरा देर स्थिर होकर बैठे रहे । फिर बोले-~सब बातों पर गौर करके देखने पर कभी नहीं राजी होंगे। ललिता ने कहा-बाबू जी, तो फिर हम लोगोंका यह स्कूल किसी तरह चल न सकेगा! परेश बाबू ने कहा- इस समय उसके चलने में अनेक बाधाएँ देख पड़ रही हैं चेष्टा करने से बहुत सी अप्रिय वातें जोर पकड़ेगी। ललिता अब वहाँ अधिक देर न टहर कर अपने कमरे में जाकर देखा, डाक से उसके नाम एक चिट्ठी आई है । हस्ताक्षर देखकर मालूम हुआ कि उसकी बचपन की सहेली शैलबाला की लिखी चिट्ठी है। उसका व्याह हो चुका है, और वह अपने स्वामी के साथ बाँकीपुर में रहती है। चिट्ठी में लिखा था --"तुम लोगों के बारे में तरह तरह की बातें सुनकर मन बहुत खराव हो रहा था। बहुत दिनसे सोचती हूँ कि चिट्ठी लिख कर खबर लूँ-~-लेकिन फुरसत ही नहीं मिलती। किन्तु परसों एक