पृष्ठ:गोरा.pdf/३४

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[ ५ ]

"अजी सुनते हो ? डरों नहीं, मैं तुम्हारी पूजा की कोठरी में नहीं आऊँगी । सन्ध्या पूजा समाप्त करके जरा मेरी दालान में आना तुमसे कुछ कहना सुनना हे । मे जानती हूँ कि दो नए सन्यासी आये हुए हैं इसी लिए कुछ समय तक तुम्हारे दर्शन दुर्लभ रहेंगे, इसी से तुमसे यह कहने के लिए आना पड़ा। भूलना नहीं, जरा हो जाना ।" यह कह कर आनन्दमा गिरती के काम काज करने चली गई। कृष्णदयाल बाबू का रङ्ग सांवला है । दाहरा हड्डी का शरीर है । माथा विशत्र लम्बा नहा है । चहर म उनक बड़ बड़े दाना नेत्र ही एक ऐसी चान है, जिस पर विशष रूप स होष्टे पड़ता है। बाका सब चहरा दाढ़ी मूछ क खिचड़ी वाला से ढका हुआ है ! यह सदा गरुवा रँगा हुअा रेशर्मा वस्त्र धारण करत ह । हाथ म पतिल का कमण्डल र परा म खड़ाऊँ रहता है। सिर पर सामन काहस के बाल गिर गए ह–बाकी हिस्से के बड़े बड़े बाला का गाँठ लगाकर एक जटाजूट सा बना रखा है। एक जमाना था, जब यह पछाह में रहते थे, और इन्हाने पल्टन में गार का सोहबत में मय-मास का संवन करके सच एकाकार कर दिया था। उस समय यह देश के पुजारा, पुराहत, पंड, वःणव ार संन्यासा अगाके लाग क गल पड़कर उनका अपमान करने को परम पारुप (मदानगा) समझत थे । किन्तु इस समय हिन्दू धर्म का ऐसा कोई चीज नहीं है, जिसे वह न मानत हो । समय का फेर इसी का कहत है। इस समय यह हाल ह के केसा नये संन्यासा का देखतं हा उसके पास काई नवीन साधना का माग सीखने बैठ जाते हैं । मुक्ति के निगूढ़ मार्ग और योग की निगूढ प्रणाली के लिए इन्हें बेहद लाभ है । कृष्णदयाल बाबू तांत्रिक साधना का अभ्यास करने के इरादे से कुछ दिन से उसके सम्बन्ध का उपदेश ले रहे थे, इसी समय एक औद्ध पुरोहित का पता मिल गया और इस समय इसी और चलने के लिए उनका मन चंचल हो उठा है।