पृष्ठ:गोरा.pdf/३४५

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[ ४८ ]

[ ४८ ] सुचरिता सोचने लगी-ललिता यह क्या कर बैठी ! कुछ देर चुप रह कर ललिताके गले में हाथ डालकर नुचरिता ने कहा-मगर मुझे तो वहन, डर लग रहा है ! ललिताने पूछा-काहे का डर है ? सुचरिताने कहा-इधर ब्राह्म-समाजमें चारों ओर हलचल मच गई है, किन्तु इधर अगर अन्त को विनय बाबू न राजी हुए तो! ललिताने सिर झुकाकर दृढ़ स्वर से कहा—वह अवश्य राजी होंगे! सुचरिताने कहा-त् तो जानती है वहन, हारान वा माँ को यह आश्वासन दे गये हैं कि विनय कभी अपने समाजको छोड़कर यह व्याह करने को राजी न होंगे। ललिता, क्यों तू ने संब पहलुओं पर विचार किये बिना हारान बाबके आगे यह बात इस तरह कह डाली। ललिताने कहा-कह डालने के लिए अब भी मुझे पछतावा नहीं हो रहा है ! हारान बाबूने सोचा था कि वह और उनका समाज. मेरा, शिकार के जानवर की तरह, पीछा करके मुझे एकदम अथाह समुद्र के किनारे तक ले आया है। यहाँ.मुझे अात्म-समर्णण करने के लिए लाचार ही होना पड़ेगा। वह नहीं जानते, मैं इस समुद्र में कूद पड़नेले नहीं इरती; उनके शिकारी कुत्तोंके पीछा करनेसे विवश होकर उनके फन्देमें घुसनेसे ही डरती हूँ। सुचरिता ने कहा---अच्छा, एक बार जरा बाबू जी से सलाह करके देखू। ललिताने कहा-बाबू जी कभी शिकारियोंके दलमें शामिल नं ३४५