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गोरा

गोरा [३५७. यह कहकर हाथ पकड़ कर उसे जरा विशेष रूपसे पास खाँच कर आनन्दमयी ने विठलाया। जैसे ललिता उनकी कुछ विशेष रूपसे अपनी. चीज हो उठी है। अपनी पहले बात चीत के सिलसिलेमें ही आनन्दमयी सुचरितासे कहने लगी---देखो बेटी, भले के साथ बुरे का मिलना ही सबसे कठिन है, किन्तु तो भी पृथ्वी पर उसका भी मिलन देखा जाता है, और उससे साथ चलता जाता है। यह भी नहीं है कि सब समय सर्वथा उसका फल बुरा ही हो, मलाई भी होती है। यह भी जर सम्भव हुआ, तब केवल मत का जरा फर्क जहां है, वहाँ उस जरामे पार्क के लिये दो आदमी, जिसका हृदय मिल चुका है, क्यों नहीं मिल सकते- मेरी समझ में नहीं आता। मनुज्य का असल मेल क्या मत पर ही भी सुख दुख यह तो तुचरिता सिर झुकाये बैठी रही । आनन्दमयी ने कहा--तुम्हारा ब्राह्म-समाज भी क्या मनुष्य के साथ मनुष्य को मिलने न देगा? ईश्वरने भीतर जिनको एक कर दिया है उनको तुम्हारा समाज क्या वाहर से अलग कर रक्खेगा? अानन्दमयी जो इस विषयको लेकर इतने ऐसे अांतरिक उत्साहके साथ अलोचना कर रही थीं, सो क्या केवल ललिताके साथ विनयके व्याह की बाधा दूर करने ही के लिये सुचरिताके मनमें इस सम्बन्ध में कुछ दुविधाके नाबका अनुभव करके वह दुविधा दूर करने के लिए उनका समय मन जो उद्यत हो उठा, इसके भीतर क्या और एक उद्देश्य नहीं था ? सुचरिता अगर ऐसे संस्कार में फंसी रहे, तो उससे किसी तरह काम नहीं चलेगा । विनयके ग्राम हुये बिना व्याह न हो सकेगा, यही अगर सिद्धान्त हुआ, तो बड़े दुःखके समय भी आनन्दमयी जो इधर कुछ दिनसे जिस श्राशाको प्रश्रय देकर खड़ा कर रही थीं वह मिट्टी में मिल बायगी ! आज ही विनयने यह प्रश्न उनसे पूछा था कि माँ, ब्रह्म-समाजमें क्या नाम लिखाना होगा ? यह भी क्या स्वीकार करूगा?