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गोरा

३६ ] गोरा दयाल बाबूको वह अत्यन्त कौतुकका विषय हो जान पड़ा। देखते देखते बाहरके लोगोंमें गोराकी प्रष्ठिता बढ़ने लगी मगर घरमें उसे कोई कुछ नहीं गिनता था । महिम उस समय नौकरी करता था। उसने गोराको कभी "पेट्रियट् दादा” और कमी "हरिशनुस्वर्जी दि सेकिंड" कह कर व्यंगके द्वारा दवानेकी चेष्ठा की थी। उस समय अक्सर बीच बीचमें दादाके साथ गोरा की हाथापाई हो जानेकी नौबत आ जाती थी। आनन्दमयी गोराके अँगरेजी-विद्वपको देखकर बहुत चिन्तित होती थी- उसे अनेक प्रकारसे शान्त करनेकी चेष्टा करती थीं, लेकिन कुछ फल न होता था। गोरा रास्तेमें बाजारमें कहीं कोई मौका पाकर किसी अंगरेजके साथ मारपीट कर सकता तो अपने जीवनको धन्य समझता। इधर बाबू केशवचन्द्र सेनके व्याख्यानोपर रीझ कर गोरा ब्रह्म- समाजकी ओर विशेष रूपसे आकष्ट हो गया। उधर कृष्णदयाल बाबू इसी समय बहुत ही अधिक श्राचारनिष्ठ हो उठे। यहाँ तक कि गोरा अगर उनके कमरेमें चला भी जाता था, तो वह व्यतिव्यस्त हो उठते थे। दा तोन कोठरी कमरे लेकर उन्होंने अपनी जगह घरमें अलग कर ली । उस अपने स्वतन्त्र आश्रमके द्वार पर एक बोई लटका दिया, जिसपर "साधनाश्रम" लिखा हुआ था। वापकी इन हरकतासे गोराका मन विद्रोही हो उटा । उसने कहा- मैं यह सब मूढ़ता सह नही सकता---यह मेरे लिये चक्षुशूल है। इसी उपलक्षमें गोराने अपने बापके साथ सब तरहका सम्बन्ध तोड़कर एकदम घरसे बाहर हो जानेका उपक्रम किया था। श्रानन्दमयाने किसी तरह समझा बुझा कर बहला कर उसे रोक-रक्खा । बाप के पास जिन ब्राह्मण पण्डितों का आना जाना ने लगा, उनके साथ मौका मिलते ही गोरा बहस करने लगता था । उसे बहस नहीं, बल्कि घूमेबाजी के लगभग कहनाक होगा। उन ब्राह्मण पंडितों में अधिकांश ऐसे थे जिनमें पांडित्य की मात्रा तो अत्यन्त साधारण ही थी, मगर धन का लोन अपरिमित था । बे बहस मे गोरा से पेश नहीं पाते थे, और इसीलिए उससे बैंस ही