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गोरा

गोरा । द्वार खुला पानेसे पक्षी जैसे झटपट उड़ जाता है वैसे विनय का मन निष्कृतके खुले मार्ग पर दौड़ न सका । कर्त्तव्य बुद्धिको उपलक्ष्य करके वह बहुत दिनोंसे संयमके बन्धनको आवश्यक समझ उसे तोड़ बैठा है। जहाँ उसका मन डरकर एक पग आगे बढ़ता और फिर अपराधीकी भाँति पीछे हट पाता था, वहाँ अब वह निर्भय हो डेरा डाल बैठा है। अब उसको वहाँसे लौटना कठिन है। जो कर्तव्य बुद्धि उसे घसीटकर यहाँ तक ले आई है वह कह रही है कि अब जरूरत नहीं, चलो, यहाँ से लौट चलो । मन कहता है, नहीं तुमको जरूरत नहीं है तो तुम लौट जाओ; मैं यहीं रहूँगा? परेश बाबूने जब कोई भाव छिपा रखने का अवसर न दिना तब विनयने कहा-आप ऐसा न समझे कि मैं किसी कर्तव्यके अनुरोधसे यह कष्ट स्वीकार करना चाहता हूँ ? यदि आप सम्मति दे तो मेरे लिए इससे बढ़कर और सौभाग्य क्या हो सकता है। केवल मुझे भय है पीछे- सत्यप्रिय परंश बाबूने सङ्कोच रहित होकर कहा--तुम जिस बात का भय करते हो उसकी कोई बुनियाद नहीं। मैंने सुचरिता से सुना है,ललिता का मन तुमसे विमुख नहीं है। विनय के मनमें एक अानन्दकी विद्युत् चमक गई । ललिताके मनकी एक गूढ़ बात सुचरितासे प्रकट हुई है कब, कैसे प्रकट हुई ? दोनों सखियोंमे इस तरह के गुप्त भाषण होनेका रहस्यमय सुख, विनयके हृदयमें तीव्र आघात पहुँचाने लगा। विनय ने कहा- यदि आप मुझे योग्य समझते हैं तो इससे बढ़कर मेरे लिए आनन्द की वात और क्या हो सकती है। परेश बाबू - तुम जरा ठहरो मैं ऊपर हो आऊँ। वे वरदासुन्दरी से सलाह लेने गये। वरदासुन्दरी ने कहा- विनयको ब्राह्म-धर्म की दीक्षा लेनी होगी। परेश बाबू हाँ, वह तो लेनी ही होगी।