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गोरा

२६२ ] गोरा की आत्माने स्वीकार न की । लम्बी साँस लेकर विनय उठ खड़ा हुआ और परेश बाबू तथा वरदासुन्दरीको प्रणाम करके कहा--मुझे माफ कीजिए । मैं अब इस बातको बढ़ाकर अपराधी बनना नहीं चाहता ! यह कहकर वह घरसे चला गया। सीढ़ीके पास आकर उसने देखा, सामने बरामदे के एक कोने में छोटा देक लेकर ललिता अकेली बैठी चिट्ठी लिख रही है। पैरोंकी श्राहट सुनते ही ललिताने आँख उठाकर विनय के मुँहकी ओर देखा। उसकी क्षणिक दृष्टिने विनयके चित्तको चंचल कर दिया। विनयके साथ ललिता का कुछ नया परिचय नहीं है। कई बार उसने उसके मुंहकी ओर देखा है। किन्तु आज उसकी दृष्टिमें कुछ और ही रहस्य भरा था। ललिताके मन की जो बात सुचरिता जान गई है वह आज ललिताके करुणा-भरे नेत्रों में उमड़ कर सजल मेघ की भाँति विनय को दिखाई दी। विनय की भी उस और टकटकी बैंध गई । वह बड़े कष्ट से अपने मन की गति को रोककर ललिता से कुछ सम्माषण किये बिना सीढ़ी से उतर कर चला गया।