पृष्ठ:गोरा.pdf/३६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
३६४ ]
गोरा

। ३६४] गोरा कृष्णदयाल गङ्गास्नान करके ज्योंही घर पर आये त्योंही गोरा उनसे मिलने गया। दूर ही से उनको प्रणाम किया । कृष्णदयाल संकुचित हो कुछ दूर एक आसन पर बैठे । गोराने कहा-पिताजी, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ। कृष्णदयाल-इसका तो मैं कोई प्रयोजन नहीं देखता । तुमको यह सब करना न होगा। मैं इसमें अपनी सम्मति नहीं दे सकता । आनन्दमयीने चौकेमें गोरा और विनय का आसन रखवाया । भोजन करके जब दोनों मित्र छत के ऊपरवाली निर्जन कोठरी में जा बैठे तब उन दोनों में पहले कौन क्या बात बोले, इसी का कुछ देर मन ही मन विचार होता रहा । इस एक महीने के भीतर विनय के सम्बन्ध में जो एक नई बात उठ खड़ी हुई है, वह आज गोरा से कैसे कहे यह उसकी समझ में न आया । गोरा परेश बाबू के घर के लोगों का कुशल- समाचार पूछना चाहता था, परन्तु कुछ न पूछ सका । विनय स्वयं उसकी चर्चा करेगा, यह सोच वह उसकी अपेक्षा कर रहा था । हाँ, उसने परेश बाबू से उनकी लड़कियों की कुशल अश्वव पूछा था । किन्तु वह केवल शिष्टता का प्रश्न था । "वे सब अच्छी तरह हैं। इस समाचार से भी कुछ अधिक व्योरवार हाल जानने लिए उसका मन विशेष उत्सुक था । विनय सावधान होकर बैठा और बोला-इधर एक अनिवार्य घटना से ललिता के साथ मेरा सम्बन्ध बेतरह उलझ गया है। यदि मैं उससे व्याह काँगा तो बहुत दिनों तक उसे समाज में अन्याय और अमूलक अपमान सहना पड़ेगा। गोरा–कैसे क्या उलझ गया है, यह सुना चाहता हूं। विनय-इसके भीतर बहुत बातें हैं, जो - क्रमशः तुमसे कहूँगा। किन्तु इस बात को तुम अभी मान लो। गोरा-अच्छा, मैं मान लेता हूं। किन्तु इस सम्बन्धमें मेरा कहना यही है कि यदि घटना अनिवार्य है तो उसका दुःख भी अनिवार्य समझो। -