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गोरा

[३६६ मलीन हो गया है । उसके केश बहुत छोटे करके छांटे जाने के कारण मुखका दुबलापन और भी अधिक देखा जाता है। गोराके शरीरका इस शीर्णताने ही सुचरिताके मनमें विशेष करके एक वेदनापूर्ण सम्मानका भाव जगा दिया। उसका जी चाहने लगा कि वह प्रदान करके गोराकी चरण रज मस्तक में लगा ले! जिस प्रज्वलित अागका धुआँ और काष्ट फिर देख नहीं पड़ता, उसी विशुद्ध अमिकी शिखा के समान उसे गोरा देख पड़ा । एक करुणा मिश्रित भक्तिके आवेगसे सुच- रिताका अन्तःकरण कांपने लगा। उसके नुहने कोई बात नहीं निकली। आनन्दमयीने कहा-मेरे लड़की अगर होती, तो कैसा सुख होता, सो अबकी बार मुझे जान पड़ता है गोरा तू जितने दिन यहाँ नहीं था, उतने दिन सुचरिताने मुझे कितनी सांत्वना दी है, सा मैं तुमसे क्या कहूँ ! वेग, तुम शरमा रही हो, लेकिन तुमने मेरे दुःखके दिनोंमें मुझे कितना सुख दिया है, यह बात तुम्हारे सामने कहे बिना मुझसे रहा कैसे जा सकता है! गोराने गहरी कृतज्ञतासे परिपूर्ण दृष्टि से सुचरिताके लज्जित मुखको और एक बार देखकर अानन्दमयीने कहा--प्रां, तुम्हारे दुःखके समय वह तुम्हारे दुःखका भाग लेने आई थी, और आज तुम्हारे सुखके दिनमें भी तुम्हारा सुख बढ़ाने आई हैं ! जिनका हृदय महान और उदार है, उनको ऐसी ही अकारण मैत्री होती है। विनयने सुचरिताका संकोच देखकर कहा-दीदी ! चोरके पकड़ लिए जाने पर वह चारों ओरते सजा पाता है। आज तुम इन समीके निकट पकड़ गई हो, उसीका यह फल भोग रही हो। अब भागोगी कहाँ ? मैं तुमको बहुत दिनसे पहचानता हूं किन्तु किसीके आगे कुछ जाहिर नहीं किया, चुप मारे बैठा हूं-मनमें खूब जानता हूँ कि अधिक दिन तक कुछ छिपा नहीं रहता। आनन्दमयीने हँसकर कहा—तुम चुप क्यों नहीं हो ! तुम चुप रहने वाले लड़के हो न-जिस दिनसे इसने तुम लोगों से जान पहचान कर फा० नं. २४