पृष्ठ:गोरा.pdf/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ ३७
गोरा

गोरा 1 डरते थे जैसे कोई बाघ से डरे । उनमें केवल हरिश्चन्द्र विद्यावागीश ही ऐखें थे जिनके ऊपर गोरा के मन में श्रद्धा का भाव उत्पन्न हुआ। कृष्णदयाल ने विद्यावागीश जी को वेदान्त चर्चा करने के लिए नियुक्त किया था। पहले ही इनके साथ उद्गतभाव से वाग्युद्ध करनेके लिए जाकर गोरा ने देखा, उनसे उस तरह युद्ध नहीं किया जा सकता । वह केवल पंडित ही नहीं थे, उनके मतकी उदारता भी अत्यन्त अद्भुत थी । गोरा इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि केवल संस्कृत में बढ़ कर ऐसी तीक्ष्ण और प्रशत बुद्धि हो सकती है । विद्यावागीश के चरित्र में क्षमा और शान्ति से पूर्ण ऐसा एक अविचलित धैर्य और गम्भीरता थी कि उनके निकट अपने को संयत शान्त न बनाना गोरा के लिए असम्भव था। गोरा ने हरिचन्द्र के पास वेदान्त पढ़ना शुरू कर दिया । गोरा किसी काम को अधूरा नहीं करता था, इसी कारण वह दर्शन शास्त्र की तह तक पहुँनने के लिए उसकी आलोचना में एकदम डूब गया । दैव संबोग से इसी समय एक अंगरेज पादरी ने किसी समाचार पत्र में हिन्दू शास्त्र और हिन्दू समाज पर आक्रमण करके देश के आदमियों को तर्क युद्ध के लिए ललकारा ! गोरा तो एकदम याग बबूला हो उठा। यद्यपि वह खुद अवकाश पाते शास्त्र और लोकाचार की निन्दा कर विरुद्ध मत के आदमी को जितनी तरह से हो सकता था, पीड़ा पहुँचाता था, तथापि हिन्दू समाज के प्रति एक विदेशी श्रादभी की अवज्ञा उसके जी में बछी सी लगी। गोरा ने समाचार पत्र में लेख लिग्न कर तर्क युद्ध छेड़ दिया। दूसरे पक्ष ने हिन्दू समाज पर जितने दोष लगाए थे, उनमें से एक भी या जरा साभी दोष गोरा ने स्वीकार नहीं किया। दोनों ओर से अनेक उत्तर प्रत्युत्तर छपे । उसके बाद संपादक ने कह दिया-बस, अब हम इसकी चिट्ठी पत्री नहीं छापेगें। किन्तु गोरा को उस समय धुन लग गई थी। उसने “हिन्दू इज्म" ( हिन्दुत्व ) नाम देकर अंगरेजी में एक किताब लिखना शुरू कर दिया। उसमें अपनी शक्ति भर सब युक्तियां देकर और सब शास्त्रों को मथ कर