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गोरा

गोरा [ ३७५ कमरेमें विनय को बैठे देखकर सुचरिता के ऊपर ललिताको क्रोध हुआ उसने समझा, अनिच्छुक विनय के मन को अनुकूल करने के लिए ही सुचरिता उसके पीछे पड़ गई है और इस टेढ़े को सीधा करने के लिये आज उसकी पुकार हुई है। उसने मौसी की ओर देखकर कहा-दीदी से कह देना, इस समय मैं अब और ठहर नहीं सकती। फिर किसी समय श्राऊँगी। यह कह कर विनय की ओर दृष्टिपात मात्र न करके ललिता तेजी के साथ चली गई। तब फिर विनय के पास हरिमोहिनी का बैठे रहना अनावश्यक होने के कारण वह भी घरके काम धन्धे के बहाने उठ गई। नहा धोकर और शतीश को खिलाने-पिलानेके बाद स्कूल भेजकर सुचारता जब विनय के पास आई,उस समय वह सन्नाटेमें बैठा हुआ था। सुचरिताने पहले का प्रसङ्ग फिर नहीं उठाया। विनय भोजन करने बैठा, लेकिन उसके पहले कुल्ला नहीं किया । हरिमोहिनीने कहा-अच्छा लुम तो हिंदू आचार-विचारकी कोई बात मानते ही नहीं,-फिर तुम्हारे ब्राह्म हो जाने में ही क्या दोष था । विनयने मन-ही-मन कुछ आघात पाकर कहा-हिन्दू-धर्मको जिस दिन मैं छुमा छूत और खाने-पीनेके निरर्थक मात्र जानूगा, उस दिन ब्राह्म, ईसाई, मुलमान आदिमें से कुछ एक हो जाऊँगा। अब भी हिन्दू धर्मक पर मुझे उतनी अभद्धा नहीं हुई है। विनय जब सुचरिताके घरसे बाहर निकला उस समय उसका मन अत्यन्त विकल हो रहा था। वह जैसे चारों ओरसे ही धक्के खाकर एक आश्रय-हीन शून्यके भीतर श्रा पड़ा था। 'क्यों मैं ऐसे अस्वाभाविक स्थान- में आकर पहुँच गया', यही सोचते सोचते सिर नीचा करके विनय धीरे धीरे सड़क पर चलने लगा । हेडा तालाब के पास श्राकर वहाँ एक पेड़के नीचे बैठ मया । अब तक उसके जीवन में छोटी बड़ी जो भी समस्या आकर उपस्थित हुई है उसने अपने मित्र गोराके साथ अालोचना M