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गोरा

३७६ ] गोरा करके, वहस करके, उसकी मीमाँसा कर ली है। आज वह राह भी नहीं खुली है -आज उसे अकेले ही सोचना विचारना होगा। सूर्यके ढल पड़ते ही जहाँ पर छाया थी, वहाँ धूप भा गई । तब विनय तरु तल छोड़कर फिर सड़क पर चलने लगा ! कुछ दूर जाते ही अचानक सुन पड़ा-“विनय बाबू ओ विनय बाबू !" और उसके बाद ही सतीशने आकर उसका हाथ पकड़ लिया ! उस दिन शुक्रवार था स्कूल की पड़ाई खतम करके सतीश उस समय घरको लौट रहा था। सतीशने कहा—चलिए विनय बाबू, मेरे साथ घर चलिए ! विनय oयह क्या हो सकता है सतीश बाबू ! सतीश-क्यों नहीं हो सकता ? विनय-इतना जल्दी जल्दी तुम्हारे घर जानेसे लोग उसे सह कैसे सकेंगे? सतीशने विनय की इस युक्ति को विल्कुल ही प्रतिवाद के अयोग्य समझ कर केवल इतना ही कहा--नहीं; चलिए । परेश बाबू के घर के सामने होकर ही सुचरिता के घर जाना होता हैं । परेश बाबू के घर के नीचे के खण्ड का बैटकखाना रास्ते से ही देख पड़ता है। उस बैठक के सामने पहुंचते ही सिर उठा कर एक बार उधर देखे बिना विनय से नहीं रहा गया । उसने देखा, टेबिल के सामने परेश कुछ बातचीत कर रहे हैं या नहीं यह नहीं जाना जा सका; और, ललिता रास्ते की ओर पीठ करके परेश बाबू की कुर्सी के पास एक छोटे से बेंत के नोहे पर छात्री की तरह चुपचाप बैठी है । सुचरिताके बरसे लौट आने के बाद जो क्षोभ ललिता के हृदय को अशान्त बना रहा था, उसे दूर करने का और कोई उपाय वह नहीं जानती थी; इससे धीरे-धीरे परेश बाबू के पास आकर बैठी थी । परेश के भीतर ऐसा एक शान्ति का आदर्श था कि असहनशील ललिता अपनी चंचलता दवाने के लिए कभी-कभी उनके पास आकर चुपचाप बैठी बाबू