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1 गोरा [३७७ रहती थी। परेश बाबू अगर पूछते थे कि क्या है ललिता ? तो वह कहती थी--कुछ नहीं बाबू जी तुम्हारी इस कोठरी में खूब टण्डक है। आज ललिता चोट खाये हुये हृदयको लेकर उनके पास आई है, यह परेश बाबू स्पष्ट समझ गये थे ! उनके अपने अन्तःकरण के भीतर भी एक वेदना छिपी हुई मौजूद थी। इसीसे उन्होंने धीरे-धीरे ऐसी एक बात उठाई थी जो व्यक्तिगत जीवनके तुच्छ सुख दुःख के बोझ को एक दम हल्का कर दे सकती है। रिना और कन्या श्री इस निर्जन आलोचना के दृश्य को देखकर दान भर के लिये विनय के पैर रुक गये – सतीश क्या कह रहा था, सो उसके कानों तक पहुँचा ही नहीं ! सतीशने उस घड़ी उससे युद्ध विद्याके सम्बन्ध में एक अत्यन्त जटिल दुस्ह प्रश्न किया था। एक बाघोंके दलको पकड़ कर बहुत दिन तक सिखाकर अपने पक्ष की सेना के अग्रभागमें खड़ाकरके युद्ध किया जाय तो इस युति से जय की सम्भावना कैसी है. वहीं उसका प्रश्न था ! अब तक दोनों मित्रों के सवाल जवाव विना किसी बाधाके चले आ रहे थे, अबकी एकाएक बाधा पाकर सतीशने विनयके मुखकी ओर देखा; उसके बाद विनयकी दृष्टि का अनुसरण करके परेश बाबू को बैठकखाने में नजर डालते ही वह ऊँचे स्वर से चिल्लाकर कह उठा-दीदी, दीदी ! श्रो ललिता दीदी ! यह देखो, मैं बिनय बाबको रास्तेने पकड़ लाया हूं। सतीशके इस बहादुरी दिखाने ले लजाके मारे बिनयके पसीना श्रा गया । पल भर के भीतर ही बैठक के भीतर ललिता कुसी छोड़कर उठ खड़ी हुई परेशवाजूने गलीकी ओर मुँह फेर कर देखा-सब मिलाकर एक मारी काण्ड हो गया है। तब विनय सतीशको बिदा कर लाचार होकर परेश बाबू के घर में घुसा। बैठकमें जाकर विनयने देखा, ललिता चली गई है। उसे सब कोई